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सिद्ध किया है। यह स्याद्वाद धर्म आपकी वाणी से प्रतिपादित किया गया है। जो इसे नहीं मानता है और अपने को आप्त कहता है वह आप्त के स्वाभिमान से दग्ध है वास्तविक आप्त नहीं है। इसी को लेकर स्वामी समन्तभद्र ने कहा है।
स त्वमेवासि निर्दोषो युक्तिशास्त्राविरोधवाक् ।
अविरोधो यदिष्टं ते प्रसिद्धेन न बाध्यते ॥ अर्थ-भगवान् तुम्ही वस्तुतः निर्दोष हो क्योंकि आपके वचन तर्क और आगम से बाधित नहीं होते । इसलिये आपका मत विरोध रहित है और प्रत्यक्षादि प्रमाणों से बाधित नहीं है।
इस प्रकार अष्टसहस्री के रचयिता आचार्य विद्यानं दि महान् विद्वान होने के साथ-साथ तर्कणा शक्ति से ओतप्रोत थे। यद्यपि न्याय (तर्क) शास्त्र के रचयिता अनेक आचार्य हये हैं पर आचार्य विद्यानं दि जी की इस विषय में पहँच कुछ और ही है। सच पूछा जाय तो उनका नाम भी “विद्यानंदि" उनकी इस महत्ता को प्रकट कर रहा है। अर्थात तर्क विद्या से जो सदा आनंदित रहते थे वे विद्यानं दि थे। उनके द्वारा रचित यह अष्टसहस्री ग्रन्थ इतना दुरुह है कि बिद्वान् होते हुये भी इसे हर कोई विद्वान् नहीं समझ सकता । इसे समझने के लिये विद्वान को बहत ही बौद्धिक कष्ट उठाना पड़ता है फिर भी पूर्णतया समझ में नहीं आता। इसीलिये इस अष्टसहस्री ग्रन्थ को कष्टसहस्री भी माना जाता है । स्वयं आचार्य विद्यानंदि जी ने अष्टसहस्री ग्रन्थ की टीका के अन्त में यह श्लोक लिखा है
"कष्टसहस्री सिद्धा साष्टसहस्रीयमत्र मे पुष्पात्
शश्वदभीष्टसहस्री, कुमारसेनोक्ति वर्धमानार्था । हजारों कष्ट से रचित यह अष्टसहस्री मेरे हजारों अभीष्टों-इच्आओं को पूर्ण करे जो कुमारसेन के द्वारा उल्लिखित की गई है।
इस श्लोक में स्वयं जब इसके रचयिता आ० विद्यानं दि इसे कष्टसहस्री मान रहे हैं, तब स्पष्ट है कि इस अष्टसहस्री को पूर्णतः गंभीरता से समझ लेना बड़ा कष्ट साध्य काम है ।
इसी कष्ट साध्य रचना अष्टसहस्री की हिन्दी टीका पूज्यगणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी ने अर्थ, भावार्थ के रूप में की है । जिसका एक भाग प्रकाशित हो चुका है । और प्रस्तुत ग्रन्थ उसका दूसरा भाग है। दि० जैन समाज में अनेक विद्वान् हुये हैं और अब भी अनेक विद्यमान है परन्तु आज तक इसकी हिन्दी टीका किसी विद्वान के द्वारा नहीं की गई है। अब इस ग्रन्थ का अध्ययन अध्यापन प्रायः सभी विद्वानों ने किया है। इसका कारण यही है कि इस ग्रन्थ को पढ़ने के बाद किसी को यह साहस नहीं हुआ कि हम इसका शब्दार्थ के साथ भावार्थ भी लिख सकेंगे । आज से पचपन साठ वर्ष पहले मैंने भी यह ग्रन्थ पढ़ा था । लेकिन पढ़ने के बाद फिर इस ग्रन्थ का पठन दोहराने को मेरी हिम्मत नहीं पड़ी। लेकिन जब आज ग्रन्थ को देखता हूँ और पूज्य माताजी कृत टीका को पढ़ता हूँ तो मुझे उनकी शब्द रचना और अर्थ तथा भावार्थ का उदाहरण पढ़कर अपार आनन्द होता है, और ऐसा प्रतीत होता है मानो यह मूलग्रन्थ भी जैसे माताजी के द्वारा ही लिखा गया है कभी विकल्प उठता है कि माता श्री ज्ञानमती जी अपने पूर्वभव में आ० विद्यानंदि जी की आत्मा ही न हों। लेकिन वे स्त्री पर्याय में भला कैसे आ सकते थे अतः माताजी के महान ज्ञान को देखकर यह तो मानना ही होगा कि पू० माताजी ही
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