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टिप्पण संकलन
अष्टसहस्री प्रथम भाग में मुद्रित प्रति के टिप्पण तो सभी रखे ही गये हैं साथ ही ब्यावर से प्राप्त हस्तलिखित प्रति से एवं दिल्ली से प्राप्त हस्तलिखित प्रति से लिये गये प्रमुख टिप्पण भी दिये गये हैं ।
ब्यावर प्रति से ब्र० रवीन्द्रकुमार, ब्र० मालती एवं ब्र० माधुरी आदि से माताजी ने टिप्पण निकलवाए थे। बाद में उनमें से प्रमुख टिप्पण स्वयं माताजी ने छांटकर निकालने में अत्यधिक परिश्रम किया था। बाद में दोनों हस्तलिखित प्रतियों से टिप्पण प्रो० डॉ० श्रेयांसकूमार जैन बड़ौत द्वारा निकलवाए गये ।
___ इस द्वितीय भाग में मुद्रित मूलप्रति के सारे टिप्पण व हस्तलिखित दोनों प्रतियों से लिये गये टिप्पण मिश्रित करके छपवाए गये हैं। १२५ पृष्ठ तक तो सभी टिप्पण छपे हैं। टिप्पण की बहुलता देखकर आगे के लिए यह निर्णय किया गया कि मुद्रित प्रति जो कि निर्णयसागर प्रेस बंबई से छपी थी उसके टिप्पण छोड़कर दोनों हस्तलिखित प्रतियों से लिये गये टिप्पण ही छपाये जावें अतः पृष्ठ १२६ से आगे मात्र हस्तलिखित प्रतियों के ही टिप्पण छपाये गये हैं।
शुभ संयोग
__ संयोग की बात है कि अठारह वर्ष पूर्व पौष शुक्ला १२ वि० सं० २०२७ में माताजी ने अनुवाद पूरा किया था। पुन: पौष शुक्ला १२ को यह दूसरा भाग छपकर हाथों में आया है। इस ग्रन्थ का पहला भाग जो कि
प के रूप में पुष्पित हआ था वह अकेला नहीं रहा उसने माताजी की/ग्रन्थमाला की बगीची में शताधिक प्रकार के पुष्प खिला दिये जो कि दस लाख की संख्या को प्राप्त हो चुके हैं। संस्थान की ग्रंथमाला की बगिया के उन विभिन्न रंग एवं खुशबू के फूलों की महक से सम्पूर्ण देश भक्तिधारा में मदमस्त/आप्लावित हो रहा है। जैन समाज के घर-घर में वे पुष्प आत्मा के गुलदस्ते को सुशोभित कर रहे है।
अब यही आशा है कि तीसरे तथा चौथे भाग के प्रकाशन में पूर्व की तरह विलम्ब नहीं होगा । अपितु शीघ्र ही प्रकाशित होंगे।
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