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________________ ( ४५ ) को करने वाली पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी जैसी परमविदुषी आर्यिका विद्यमान हैं जिनके कि हमें साक्षात् दर्शन हो रहे हैं । पं० पन्नालाल जी साहित्याचार्य ने तो माताजी के साहित्य का अवलोकन करते हुए अत्यन्त गद्गद होकर कहा कि "ज्ञानमती माताजी तो सरस्वती की अवतार हैं।" पं० दरबारीलाल जी कोठिया जो कि न्यायदर्शन के उत्कृष्ट विद्वान् हैं हस्तिनापुर आये तो माताजी ने वात्सल्य भाव से उन्हें कहा कि आप तो सरस्वती पुत्र हैं तो उन्होंने कहा - " माताजी ! आप तो साक्षात् ही सरस्वती हैं ऐसा कहते हुए उन्होंने अनेकशः माताजी की प्रशंसा की । पं० कैलाशचंद जी सिद्धान्त शास्त्री ने अष्टसहस्री का प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित करने के लिये अत्यधिक आग्रह किया था किन्तु दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान के अन्तर्गत स्थापित वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला का यह प्रथम भाग पहला पुष्प था इसलिये ज्ञानपीठ से प्रकाशन कराने की भावना नहीं बनी। अष्टसहखी के प्रथम भाग के प्रकाशन के बाद से एक-एक करके ६७ पुष्पों का प्रकाशन हो गया है। इस बीच में परम पूज्य सन्मार्ग दिवाकर, तीर्थोद्धारक चूडामणी, आचार्य रत्न श्री विमलसागर जी महाराज के पास जब - जब उनके दर्शनार्थ हम लोगों में से कोई भी गये सबसे पहले उन्होंने यही पूछा कि अष्टसहस्री का आगे का प्रकाशन हुआ कि नहीं। जब हम लोग निरुत्तर हो जाते तो महाराज जोर देकर कहते कि सबसे पहले अष्टसहस्री का पूरा प्रकाशन कराओ। एक दो बार रवीन्द्र कुमार ने कहा कि बड़ी लागत लगेगी । इस पर आचार्य श्री ने हँसते करो । महाराज जी ! शेष प्रकाशन तीन भागों में छपेगा उसमें बहुत हुये कहा सब काम हो जावेगा, प्रारम्भ तो करो, चिंता मत - अभी सन् १९८७ में मेरी दीक्षा के निमित्त से जब सर्वसंध सहित आचार्य श्री हस्तिनापुर पधारे थे तब पुनः कहा कि " अब छपने भेज दो" छरने देने का निर्णय कर लेने के बाद भी प्रेस का निर्णय करने में पूरा साल बीत गया । दूसरे भाग का प्रकाशन इस दूसरे भाग के प्रकाशन में आने वाले अन्तराय की कहानी भी लम्बी है। पहले भाग के छपते ही सम्राट प्रेस पहाड़ी धीरज दिल्ली में सन् १९७४ में दूसरे भाग के लिये थोड़ा कागज खरीद कर भेज भी दिया गया था किन्तु संघ का हस्तिनापुर आगमन हो जाने से प्रकाशन कार्य में व्यवधान आ गया। उसके बाद कई प्रेसों में प्रयास किया गया किन्तु प्रकाशन की कठिनता के कारण कोई तैयार नहीं हो पाता था, बीच-बीच में अर्थाभाव के कारण भी प्रवास धीने होते रहे। अंततोगत्वा आचार्य श्री एवं पूज्य माताजी के आशीर्वाद से इस दूसरे भाग का प्रकाशन हो ही गया । Jain Education International पूज्य माताजी ने अनुवाद से लेकर प्रकाशन तक जो श्रम इसमें किया है उसको शब्दों में अभिव्यक्त करना संभव नहीं है। समयसार ब्रन्थ की टीका लिखते हुए तथा शारीरिक अस्वस्थता होते हुए भी अंतिम प्रूफ संशोधन माताजी ने किया जो कि कष्ट साध्य कार्य था किन्तु लाचारी यह थी कि माताजी के अतिरिक्त इस कार्य को करने में कोई सक्षम भी नहीं था। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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