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________________ ४०० ] अष्टसहस्री [ कारिका २१ पक्षद्वितयमप्यनेनैव' निरस्तं, सकलधर्मकलापस्योपकारकस्याप्रतिपत्तौ तदुपकार्यशक्त्यात्मनो धर्मिणः प्रतिपत्त्यघटनात्, सकलनिश्चयस्याविशेषात् । तदुक्तं "नानोपाध्युपकाराङ्गशक्त्यभिन्नात्मनो ग्रहे। सर्वात्मनोपकार्यस्य को भेदः स्यादनिश्चित: ॥१॥ एकोपकारके ग्राह्य नोपकारास्ततोऽपरे । दृष्टे यस्मिन्नदृष्टास्ते' तद्ग्रहे सकलग्रहः" ॥२॥ इति । यदि पुनर्धर्माणामुपकारिकाः शक्तय उपकार्याश्च धर्मिणो भिन्ना एव तदा ताभिस्तस्योपकारः कश्चित्तेन वा तासां क्रियते न वेति पक्षद्वयम् । तत्र न तावदुतरः पक्षः, श्लोकार्थ-नाना उपाधिभूत सत्त्वादि धर्मों की उपकारांगभूत शक्ति से अभिन्नात्मक धर्मी को ग्रहण करने पर सर्वात्मरूप से उपकार्य में अनिश्चितरूप से क्या भेद होगा ? ॥१॥ __ और एक उपकारक के ग्राह्य होने पर उससे भिन्न अन्य उपकार नहीं है, क्योंकि उस एक के देखने पर वे सभी देखे नहीं गये हैं अतएव उनके ग्रहण करने पर सकल को ग्रहण कर लेने रूप दोष आ जाता है ॥२॥ यदि पुनः आप जैन ऐसा कहें कि उन धर्मों की उपकारक और उपकार्य शक्तियाँ उस धर्मी से भिन्न ही हैं, तब तो उन शक्तियों के द्वारा उस धर्मी का कोई उपकार अथवा उस धर्मी के द्वारा उन शक्तियों का कुछ भी उपकार किया जाता है या नहीं ? ये दो पक्ष उपस्थित होते हैं। इसमें द्वितीय पक्ष तो आप ले नहीं सकते क्योंकि "धर्मी की ये शक्तियाँ हैं" इस तरह संबंध का अभाव होने से यह व्यपदेश नहीं बन सकेगा। यदि प्रथम पक्ष लेवो कि शक्तियों के द्वारा शक्तिमान् धर्मी का उपकार किया जाता है, तब तो उन शक्तियों से वह शक्तिमान् धर्मी अभिन्न है या भिन्न ? यदि कहो अभिन्न है तब तो उन शक्तियों से शक्तिमान् धर्मी का उपकार अभिन्नरूप होने पर उन शक्तियों से वह धर्मी 1 पूर्वव्याख्यानेन । (दि० प्र०) 2 तेन सकलधर्मकलापेनोपकार्याशक्ति आत्मास्वरूपं यस्य सस्तदुपकार्यशक्त्यात्मा तस्य धर्मिणः प्रतिपत्तिर्न घटते । (दि० प्र०) 3 नाना च ते उपाधयो धर्मा नानोपाधयस्तेषामुपकारस्तस्यां कारणं ततश्चासौशक्तिस्तयाऽभिन्नात्मा स्वरूपं यस्य सतस्तस्य नानोपाध्युपकारांगशक्त्याभिन्नात्मनः मिणोऽनेकधर्मोपकारकारणशक्त्यभिन्नस्वभावस्य । (दि० प्र०) 4 अनिश्चित: कोपि नास्तीत्यर्थस्तथा सति भंगान्तरप्रतिपादन व्यर्थमेव । (ब्या० प्र०) 5 तस्य मिणो ग्रहणे सकलधर्मग्रहणं जातमथवा सकलधर्मकलापस्य ग्रहणे धमिग्रहणं जातम् । (दि० प्र०) 6 धर्माः । (दि० प्र०) 7 यदि दृष्टाश्चेत् । (ब्या० प्र०) 8 उपक्रियन्ते इत्युपकारा उपकार्या इत्यर्थ । (ब्या० प्र०) 9 धर्मशक्तयः । (ब्या० प्र०) 10 का। (व्या० प्र०) 11 तहि शक्तिभिः धर्मिणः कश्चिदुपकारः क्रियते न वा धर्मिणा शक्तीनां कश्चिदुपकारः क्रियते न वा इति प्रश्नः । (दि० प्र०) 12 तत्र तयोर्द्वयोविकल्पयोर्मध्ये शक्तिभिः धमिण उपकारो न क्रियते तथा धर्मिणा शक्तीनामुपकारो न क्रियत इत्युक्तलक्षणउत्तरपक्षो न संभवति कस्मात् । तासामसौ तस्याऽभूः इति व्यपदेशाघटनात् । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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