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________________ स्याद्वाद अर्थक्रियाकारी है ] प्रथम परिच्छेद [ ३६६ धर्माध्यासात्पटपिशाचवत् । तथा च तस्येति व्यपदेशाभावः, संबन्धाभावात् । सत्त्वादिधर्माणां धर्मिणा' सहोपकार्योपकारकभावे. मिणोपकारो धर्माणां धर्मं धर्मिणः स्यात् ? प्रथमपक्षे किमेकया शक्त्या धर्मी धर्मानुपकुरुतेऽनेकया वा ? यद्येकया स्वात्मनोनन्यया धर्मी धर्मानुपकुरुते तदैकधर्मद्वारेण नानाधर्मोपकारनिमित्तभूतशक्त्यात्मनो धर्मिणः प्रतिपत्तौ तदुपकार्यस्य' सकलधर्मकलापस्य प्रतिपत्तेः सकलग्रहः स्यात्, उपकार्याप्रतीतौ तदुपकारकप्रतीत्ययोगात् । एतेनानेकया' स्वात्मनोनन्यया शक्त्या धर्मी धर्मानुपकरोतीति पक्षान्तरमपि प्रतिक्षिप्तम् । धर्मी धमैरुपक्रियते इत्यस्मिन्नपि पक्षे किमेकोपकार्यशक्त्यात्माऽनेकोपकार्यशक्त्यात्मा वेति उन-उनकी भी प्रतिपत्ति हो जावेगी अन्यथा वे नास्तित्वादि धर्म वस्तु से भिन्न ही सिद्ध होंगे क्योंकि इन अस्तित्व और नास्तित्व आदि धर्मों में विरुद्ध धर्माध्यास देखा जाता है। जैसे कि पट और पिशाच भिन्न-भिन्न हैं वैसे ही इनमें भिन्नपना ही सिद्ध होगा । पुनः भेद सिद्ध होने में यह, धर्मी है एवं ये इसके धर्म हैं इत्यादि व्यपदेश भी नहीं हो सकेगा क्योंकि उनमें सम्बन्ध का अभाव है। यदि आप जैन यों कहें कि सत्त्वादि धर्मों का धर्मी के साथ उपकार्य-उपकारकभाव सम्बन्ध है अतः ये धर्मी हैं ये उसके धर्म हैं ऐसा कथन हो जाता है तब तो हम यह पूछते हैं कि धर्मी के द्वारा धर्मों का उपकार है अथवा धर्मों के द्वारा धर्मी पर उपकार है, क्या है ? कहिये। यदि आप प्रथम पक्ष लेते हैं तब तो पुनः प्रश्न होता है कि वह धर्मी एक शक्ति के द्वारा धर्मों पर उपकार करता है या अनेक शक्ति के द्वारा? यदि आप कहें कि एक शक्ति के द्वारा उपकार करता है तब यह बतलाइये कि वह धर्मी अपने से अभिन्न एक शक्ति के द्वारा धर्मों पर उपकार करता है या अपने से अभिन्न अनेक शक्ति के द्वारा धर्मों पर उपकार करता है ? यदि अपने से अभिन्न एक शक्ति के द्वारा उपकार मानो तब तो एक धर्म (सत्त्व लक्षण) के द्वारा नाना धर्मोपकार निमित्तभूत शक्यात्मक धर्मी की प्रतिपत्ति होने पर तदुपकार्यरूप सकल धर्म कलाप की प्रतिपत्ति हो जाने से सकल धर्मों का ग्रहण हो जावेगा, पुनः धर्म और धर्मी में ऐक्य हो जावेगा एवं उपकार्य की अप्रतीति में उसके उपकारक की प्रतीति का भी अभाव हो जावेगा। इसी कथन से "अपने से अभिन्न अनेक शक्ति से धर्मी धर्मों पर उपकार करता है" इस दूसरे पक्ष का भी खण्डन कर दिया गया है। यदि आप मूल के द्वितीय पक्ष को लेवें कि धर्मों द्वारा धर्मी पर उपकार किया जाता है, तब तो वह धर्मी एक उपकार्यशक्तिस्वरूप है या अनेक उपकार्यशक्तिस्वरूप ? इन दोनों पक्षों का खण्डन इस उपर्युक्त कथन से ही हो जाता है, क्योंकि सकल धर्म के समूहरूप उपकारक का ज्ञान न होने पर उन धर्मों से उपकार्य शक्त्यात्मक धर्मी का ज्ञान भी असंभव है, कारण कि सकल धर्म समूह का निश्चयरूप सकल को ग्रहण कर लेने नाम का पूर्वोक्त दोष यहाँ भी आ जाता है। कहा भी है 1 वस्तुना। (दि० प्र०) 2 उपकार्योपकारकभावः संबन्धोऽङ्गीक्रियते चेत् । (ब्या० प्र०) 3 वस्तुनः । (दि० प्र०) 4 अभिन्नया । (ब्या० प्र०) 5 मि । (दि० प्र०) 6 धर्मिणः । (दि० प्र०) 7 व्याख्यानेन । (दि० प्र०) 8 उपकार्या चासौ शक्तिश्चोपकार्यशक्तिः । एका उपकार्यशक्ति आत्मास्वरूपं यस्य स तथोक्तः । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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