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३९८ ] अष्टसहस्री
[ कारिका २१ प्रतिक्षेपात् । तथा च नानवस्था नाम, विधावपि 'विध्यन्तरादिविकल्पनाऽभावात्। केवलं विधिभङ्ग नास्तित्वादिभङ्गान्तरगुणीभावाद्विधिप्राधान्यं प्रतिषेधभङ्ग चास्तित्वादिभङ्गान्तरगुणीभावात्प्रतिषेधप्रधानतेति प्रमाणार्पितप्रधानरूपाशेषभङ्गात्मकवस्तुवाक्यान्नयवाक्यस्य' विशेषः' प्ररूपितप्राय एव । [ बौद्धो ब्रूते प्रथमभंगेर्नव जीवादिपदार्थस्य ज्ञानं भवति पुनः शेषभंगकथनं व्यर्थमेव
___इत्याशंकायामाचार्या उत्तरयति । ] यदप्याह जीवादिवस्तुनि सत्त्वद्वारेण प्रथमभङ्गात्प्रतिपन्ने द्वितीयादिभङ्गानामानर्थक्यम्, असत्त्वादिधर्माणामपि तदात्मनां तत एव प्रतिपत्तेरन्यथा तेषां वस्तुनोन्यत्वापत्तेः, विरुद्ध
अतएव ये सुनयापित विधि और निषेध सप्तभंगी में समारूढ़ नहीं हैं, ऐसा नहीं कह सकते हैं, क्योंकि उसमें भंगांतर का प्रतिक्षेप नहीं है। अर्थात् विधिअंश भंगांसर - भिन्न-भिन्न भंगों का प्रतिक्षेपी न होने से सप्तभंगी से समालिगित वस्तु में तादात्म्य को प्राप्त हुआ है अतएव वह सप्तभंगीविधि में समारूढ़ है ऐसा कथन सिद्ध हो जाता है और इस प्रकार सप्तभंगी विधि में विधि अंश के समारूढ़ होने से अनवस्था भी नहीं आती है, क्योंकि विधि में भी अन्य विधि आदि की कल्पना असंभव है।
केवल विधिभंग को स्वीकार करने पर नास्तित्वादि अन्य भंग गौण हो जाते हैं एवं विधिभंग प्रधान हो जाता है। तथा केवल प्रतिषेधभंग में अस्तित्व आदि भंगांतर गौण हो जाते हैं, प्रतिषेध भंग प्रधान रहता है। इसी हेतु से “प्रमाण से अर्पित प्रधानरूप अशेष भंगात्मकवस्तु कथन के वाक्य से नयवाक्य में विशेषता-अन्तर है ऐसा प्रायः प्ररूपण ही कर दिया गया है। अर्थात् प्रधानवाक्य युगपत् प्रधानरूप से अर्पित समस्त भंगात्मक वस्तु का विवेचन करता है और नयवाक्य इतर धर्मों का व्यवच्छेद न करता हुआ वस्तु में एक ही धर्म का प्रधानतया कथन करता है। जैसे कि विधिभंग में नास्तित्वादि भंगांतर की गौणता है अस्तित्व की प्रधानता है। प्रतिषेध भंग में अस्तित्वादि भंगांतर की गौणता एवं प्रतिषेध भंग की मुख्यता है यह नयवाक्य है। _ [ बौद्ध कहता है कि प्रथमभंग से जीवादि वस्तुओं का ज्ञान हो जाने पर शेष भंगों का
___कहना व्यर्थ है, इस पर आचार्य उत्तर देते हैं। बौद्ध-अस्तित्व की प्रधानता द्वारा पहले भंग से जीवादिवस्तु को जान लेने पर द्वितीय आदि भंग अनर्थक ही हैं, क्योंकि नास्तित्वादि धर्म भी उस-उस स्वरूप ही हैं अतः उस पहले भंग से ही 1 निषेधादि । (ब्या० प्र०) 2 भंगान्तराप्रतिक्षेपिणो विद्धय शस्याभिधानादेवाशेषभंगात्मकवस्त्वाचक्षाणस्य सुनयवाक्यस्य प्रमाणवाक्यात को भेद इत्याशंकायामाह । (ब्या० प्र०) 3 वाक्यमिति पा० । (दि० प्र०) प्रमाणवाक्यम् । (दि० प्र०) 4 विधिप्रतिषेधात्मकं वस्तु इति प्रमाणवाक्यम् । केवलं विध्यात्मकं केवलं प्रतिषेधात्मकं वस्तु इति नयवाक्यम् । (दि० प्र०) 5 भेदः । (ब्या० प्र०) 6 सत्त्वासहचरितानां ततः प्रथमभंगादेव निर्णयो घटते । अन्यथा न घटते चेत् तदा तेषां सप्तभंगानां वस्तुनः सकाशात् भिन्नत्वं घटते। वस्तु अन्यत् । भंगाऽन्ये विरुद्धधर्माधिकरणात् । (दि० प्र०)
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