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________________ स्याद्वाद अर्थ क्रियाकारी है ] प्रथम परिच्छेद [ ४०१ तव्यपदेशविरोधात् । प्रथमपक्षे तु शक्तिभिः शक्तिमत' उपकारेनर्थान्तरभूते स एव कृतः स्यात् । तथा च न शक्तिमानसौ, तत्कार्यत्वात् । ततोर्थान्तरभूतेनवस्थाप्रसङ्गः, तद्व्यपदेशसिद्ध्यर्थमुपकारान्तरपरिकल्पनात् । शक्तिमता शक्तीनामुपकारे शक्त्यन्तराणां कल्पनेनवस्थैव' । तदकल्पने प्राच्यशक्तीनामप्यव्यवस्थितिः । इति न शक्तिशक्तिमद्वयवहारः सिध्येत् । तदप्युक्तं ___ "धर्मोपकारशक्तीनां भेदे तास्तस्य किं यदि ? नोपकारस्ततस्तासां तथा स्यादनवस्थितिः॥" इति ।, तदपि' सर्वमपाकुर्वन्तः सूरयः प्राहुः ।ही किया गया है ऐसा समझना चाहिये । पुनः वह धर्मी शक्तिमान नहीं रह सकेगा क्योंकि वह उन शक्तियों का कार्य होने से शक्तिरूप ही रहेगा शक्तिमान् नहीं कहलावेगा। द्वितीय पक्ष में वह धर्मी उन शक्तियों से भिन्न है, कहो तब तो अनवस्था का प्रसंग आ जावेगा। 'उस शक्तिमान् की ये शक्तियाँ हैं' भिन्न पक्ष में इस बात को सिद्ध करने के लिये एक भिन्न हो उपकार की कल्पना करनी पड़ेगी। पुनः शक्तिमान् से उन शक्तियों का उपकार मानने पर भिन्नभिन्न शक्तियों की कल्पना करते-करते अनवस्था ही आ जावेगी। (अर्थात् शक्तियों के द्वारा किया गया उपकार यदि भिन्न है, तब तो शक्तिमान् का यह उपकार है, ऐसा व्यपदेश कैसे होगा ? यदि उपकारांतर से मानें, तब तो अनवस्था हो जावेगी, क्योंकि वह भी उनसे भिन्न ही है।) यदि आप कहें कि हम शक्त्यंतर की कल्पना नहीं करेंगे तब तो प्राच्य शक्तियों की (शेष धर्मों की) भी व्यवस्था नहीं बन सकेगी। इस प्रकार से शक्ति और शक्तिमान् का व्यवहार ही सिद्ध नहीं हो सकेगा। तदप्युक्तम् श्लोकार्थ-धर्म और उनकी उपकारक शक्तियों में एकांतत: भेद होने पर वे शक्तियाँ उसकी है यह कह सकते हैं क्या ? नहीं कह सकते । यदि कहें कि उससे उन शक्तियों का उपकार नहीं है, तब तो व्यवस्था ही नहीं बन सकती है। इति । (इस प्रकार से इस बौद्ध ने अपने पक्ष का समर्थन रखा है ।) ___ उपर्युक्त सभी कथन का खण्डन करते हुये आचार्य कहते हैं 1 सकाशात् । (दि० प्र०) 2 अभिन्ने । (दि० प्र०) 3 स एव शक्तिमानेव कृतो भवेत्तथा च कृते सति कि भवत्यसो धर्मी शक्तिमान् न भवत्यनित्यो भवतीत्यर्थः । (दि० प्र०) 4 शक्तिमान् शक्तीनाम्पकारमनेकशक्तिभिः करोति ताभिविना वेति विकल्पढयमत्रावगन्तव्यम् । (दि० प्र०)5 शक्त्यन्तर । (दि० प्र०) 6धर्मोपकारनिमित्तानां मिशक्तीनां धर्मिणो भेदे यधुपकारो न क्रियते तदा ताः शक्तयस्तस्य किंनैवेत्यर्थः । यदि ततो धर्मिणस्तासां शक्तीनामुपकारो भवति तथा सत्यनवस्थेति । अनवस्था शक्तीनामुपकारकरणेऽपि धर्मिण: शक्त्यन्तराणां परिकल्पनात् । तदकल्पनेनावस्थितिः प्राच्यशक्तीनामपि अव्यवस्थितिरितिभावः । (दि० प्र०) 7 तदप्येतत् इति पा० । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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