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________________ अस्तिनास्ति का स्वरूप ] प्रथम परिच्छेद [ ३८३ संभवत्येवेति, तदभावे एवासंभवात्, 'विशेषणविशिष्टवस्तुग्रहणस्य विशेषणं 'सत्त्वादिसामान्य पूर्वं गृहीत्वा तदनन्तरं विशेष्यं गृह्णाति, ततस्तत्संबन्धं समवायं लोकस्थितिं च विशेषणविशेष्यव्यवहारनिबन्धनां, ततस्तत्संकलनेन सदिदं वस्तु' इति प्रतीतिक्रमस्यैव दुर्घटत्वात्, विशेषणविशेष्यात्मकस्य सामान्यविशेषरूपस्य वस्तुनो जात्यन्तरस्य यथाक्षयोपशमं प्रत्यक्षे परोक्षे च विज्ञाने निर्बाधमनुभवात्तद्विपरीतस्य जातुचिदप्रतीतेः । तथा सति नैकान्तेन' दर्शनविकल्पाभिधानानां विषयभेदोस्ति कथंचित्प्रतिभासभेदेपि प्रत्यासन्नेतरपुरुषदर्शनवत्, प्रतिभासभेदाद्विषयभेदे योगीतरप्रत्यक्षयोरेकविषययोरपि विभिन्नविषयत्वप्रसङ्गात् । एतेन करता है। एवं उस विशेषण-विशेष्य के सम्बन्ध रूप समवाय को और विशेषण-विशेष्य व्यवहार निमित्तक लोकस्थिति को ग्रहण करता है। पुन: उस लोक स्थिति के ग्रहणानंतर उस संकलनरूप ज्ञान से "यह वस्तु सत्रूप है" इस प्रकार से ग्रहण करता है, यह आप बौद्धों का प्रतीतिक्रम अतिदुर्घट है। देखिये ! हम जैनों की ऐसी मान्यता है कि विशेषण-विशेष्यात्मकवस्तु सामान्य विशेषरूप से एक जात्यंतर स्वरूप ही है वह अपने-अपने क्षयोपशम के अनुसार प्रत्यक्ष ज्ञान में एवं परोक्षज्ञान में बाधारहित अनुभव में आ रही है किन्तु उससे विपरीत की कदाचित् भी प्रतीति नहीं होती है अर्थात् अपनेअपने क्षयोपशम के अनुसार प्रत्येक मनुष्य को अपने प्रत्येक मनुष्य को अपने प्रत्यक्ष ज्ञान से या परोक्षज्ञान से सामान्यविशेषात्मक एक जात्यन्तररूप ही वस्तु का अनुभव आता है। इस प्रकार से निर्बाधप्रतीति होने पर दर्शन विकल्प और अभिधान अर्थात प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम प्रमाणों में कथंचित् प्रतिभास भेद होने पर भी एकांत से विषय भेद नहीं है, जैसे कि प्रत्यासन्न और दूरवर्ती पुरुष एक वृक्ष को देख रहे हैं, उन दोनों का प्रतिभास स्पष्ट और अस्पष्टरूप है, फिर भी उस वृक्ष में भेद नहीं है। यदि प्रतिभास के भेद से विषय भेद मानोगे, तब तो आपके यहाँ ही योगी-प्रत्यक्ष एवं छद्मस्थ जनों के प्रत्यक्ष एक विषय वाले हैं, उनमें भी भिन्न-भिन्नपने का प्रसंग आ जावेगा। सामान्य 1 तत्त्वादि । इति पा० । (दि० प्र०) अतः स्याद्वादी सौगतमतं प्रतिशंकते । (दि० प्र०) 2 जातिरियम् । (ब्या० प्र०) 3 कथंचिद्रूपस्य । (दि० प्र०) 4 निश्चितं यथा भवति । दि० प्र०) 5 विशेषणविशेष्यात्मत्वसामान्यविशेषात्मकत्वलक्षणवस्तुरूपात्जात्यन्तराद्विपरीतस्य कदाचित्प्रतीतिर्नास्ति । प्रतिभासः। (दि० प्र०) 6 जात्यन्तरस्यानुभवे सति। (दि० प्र०) 7 सामान्यविशेषात्मके वस्तुत्वे सति । निर्विकल्पकज्ञानसविकल्पकज्ञानागमानां प्रमाणत्रयाणां सर्वथा वस्तु भेदो नास्ति कथञ्चित्स्पष्टत्वास्पष्टत्वादिना ज्ञानभेदोस्ति । यथा प्रत्यासन्नदुरतरवस्तुदर्शने वस्तुभेदो नास्ति प्रकाशभेदोस्ति =ज्ञानभेदात्पदार्थभेदश्चेत्तदा सर्वज्ञप्रत्यक्षास्मदादिप्रत्यक्षयोर्द्वयोः एको घटादिविषयोर्ययोस्ती तयोविभिन्न पदार्थत्वप्रसंगो भवति । यो घटादियोगिप्रत्यक्षस्य विषयस्योस्मदादि प्रत्यक्षो न भवतीति । यो घटादिरस्मदादि प्रत्यक्ष: स योगिप्रत्यक्षो भवति । (दि० प्र०) 8 सौगतो वदति स्वलक्षणं दर्शनस्य विषयः अन्यापोहो विकल्पज्ञानस्य विषयः सदसदात्मकं शब्दस्य विषयः । (दि० प्र०) 9 प्रतिभासभेदोस्ति । इति पा०। (दि० प्र०) 10 हेतुत्वाहेतुत्वविशेषणात्मकदृष्टान्तस्यापि विकल्पबुद्धावेष्वप्रतिभासनादसिद्ध इत्याशंकायामाहुः एतेनेति । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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