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अष्टसहस्री
[ कारिका १६ मात्र सामान्यमानं वा परस्परनिरपेक्षं, तदुभयं वा स्वलक्षणं, तस्य तेन' रूपेणाव्यवस्थितत्वात्, सामान्यविशेषात्मन एव जात्यन्तरस्य वस्तुस्वरूपत्वात् तेनैव लक्ष्यमाणस्य स्वलक्षणत्वप्रसिद्धः सकलबाधकवैधुर्यात् ।
[ विधिनिषेधयोधर्मी कः इत्यादिप्रश्ने सति विचारः क्रियते जैनाचार्यः ] कः पुनर्विधेयप्रतिषेध्ययोधर्मी स्यादाश्रयभूतः कश्च तयोस्तेन संबन्धो येन विशेषणविशेष्यभावः स्यादिति चेदुच्यते । अस्तित्वनास्तित्वयोम सामान्यम् । तत्र तादात्म्यलक्षणः संबन्धः, संबन्धान्तरकल्पनायामनदस्थाप्रसङ्गात् । तन्नतत्सारं-जात्यादिमतामेतन्न
क्योंकि वह वस्तु उसरूप से व्यवस्थित नहीं है किन्तु सामान्य-विशेषात्मक एक जात्यंतररूप ही वस्तु का स्वरूप है। उसी जात्यंतररूप से ही लक्ष्यमाण वस्तु स्वलक्षणरूप से प्रसिद्ध है । अतः वह सम्पूर्ण बाधाओं से रहित है।
[विधि और निषेध का धर्मी कौन है, इत्यादि प्रश्नों पर जैनाचार्य विचार करते हैं] शंका-पुनः विधि और प्रतिषेध्य का धर्मी कौन है ? उन दोनों का आश्रयभूत कौन है ? एवं उस धर्मी के साथ उनका संबंध कौन सा है कि जिससे उनमें विशेषण-विशेष्य का भाव बन सके ?
समाधान-हम आपके इन प्रश्नों का समाधान करते हैं। अस्तित्व और नास्तित्व का धर्मी सामान्य है। उस धर्मी में विधि और प्रतिषेध का तादात्म्य लक्षण सम्बन्ध है। यदि समवायादि सम्बन्धांतर की कल्पना करेंगे तब तो अनवस्था दोष आ जाता है।
बौद्ध-यदि इस प्रकार सिद्ध है तब तो आपका यह मत सारभूत नहीं है क्योंकि जात्यादि सामान्यवाले पदार्थों का प्रत्यक्ष द्वारा ग्रहण हो संभव नहीं है।
जैन --- नहीं, प्रत्युत् जात्यादिरूप सामान्यमान् पदार्थों के अभाव में आप बौद्ध प्रत्यक्षज्ञान के द्वारा कुछ भी ग्रहण नहीं कर सकते हैं।
आप बौद्धों की यह मान्यता है कि सत्-असत्रूप विशेषण से विशिष्ट वस्तु को ग्रहण करने में सत्त्वादिसामान्य विशेषण को पहले ग्रहण करके यह प्रत्यक्षज्ञान तदनंतर जीवादिविशेष्य को ग्रहण
1 तस्य स्वलक्षणस्य तेन सामान्यविशेषोभयमात्रेण व्यवस्थिति स्ति। एकैकरूपेणाव्यवस्थानात् । (दि० प्र०) 2 स्वलक्षणस्य । पदार्थस्य । (दि० प्र०) 3 तस्येति अधिकः पाठः। (दि० प्र०) 4 ता । समवाय-धारणम् । (दि० प्र०) 5 रहितत्वात् । (दि० प्र०) 6 तयोः सामान्य विशेषात्मनोस्तेन धर्मिणा सह संबन्धः क इति प्रश्नः कृतः परवादिना । (दि० प्र०) 7 स्याद्वादी सौगतमुत्तरयति । (दि० प्र०) 8 आश्रयभूत: । (दि० प्र०) 9 सौगत: प्राह । अर्थानामेतत्तादात्म्यं न संभवति । तदेतत्सौगतस्य वचः सारं न । कस्मात्तस्य धर्मर्धामरूपस्य तादात्म्यस्याभावे सति केवलं विशेषणयुक्तवस्तुग्रहणस्य संभवो न घटते । (दि० प्र०) 10 विशेषणविशिष्टत्वेन ग्रहणं न संभवत्येवेति सौगतीयं वचः यदियद्रच्छा जात्यादिमंत एव । तदा प्रथममेव प्रत्यक्षेण जात्यादिविशिष्टवस्तुग्रहणं भवति । वक्ष्यमाणप्रकारेण क्रमतो विशेषणविशिष्टवस्तग्रहणं तु न संभवतीति भावः । (दि०प्र०)
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