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________________ अस्तिनास्ति का स्वरूप ] प्रथम परिच्छेद [ ३८१ विशेष्यतत्संबन्धलोकस्थितिसंकलनेन' गृह्यंत नान्यथेत्यभिनिवेशेपि वस्तुनो विधिप्रतिषेधस्वभावयोः प्रत्येकं दर्शनमवश्यंभावि, वस्तु न + एव दर्शनं न तद्विधिप्रतिषेधस्वभावयोविशेषणयोरिति वक्तुमशक्तेः सदसत्स्वभावशून्यस्य स्वलक्षणस्य दर्शने 'तत्पृष्ठभाविविकल्पेनापि सदसत्त्वयोरध्यवसायायोगात् ' पीतदर्शनपृष्ठभाविना विकल्पेन नीलत्वाध्यवसायायोगवत् । ततो विधिप्रतिषेधावात्मानौ विशेषस्य सविकल्पकत्वं साधयतः, सर्वथा तस्य भेदाभावे सदिदमसदिदमिति प्रत्येकं दर्शनाभावानुषङ्गात्, इदमुपलभे नेदमिति विकल्पोत्पत्तिविरोधात् । ततः 'सामान्यविशेषात्मकं " वस्तु स्वलक्षणं, न पुनः सकलविकल्पातीतं विशेष किन्हीं अस्तित्वादि से विशिष्ट किसी 'सत्' को ग्रहण करते हुये विशेषण - विशेष्य एवं उसके सम्बन्ध को लोकस्थिति संकलन के द्वारा ग्रहण करता है अन्यथा ग्रहण नहीं करता है, इस प्रकार बौद्धों का अभिप्राय होने पर भी वस्तु के विधि प्रतिषेध स्वभाव में प्रत्येक का दर्शन ( प्रत्यक्ष ज्ञान का विषय) होना अवश्यंभावी है । आप बौद्ध ऐसा कह नहीं सकते कि " वस्तु का ही दर्शन होता है उसके विधि प्रतिषेध स्वभावरूप विशेषण का दर्शन नहीं होता है" क्योंकि सत्-असत् स्वभाव से शून्य स्वलक्षण का निर्विकल्पदर्शन में यदि प्रतिभास मानते हो तब तो उस निर्विकल्प ज्ञान के पीछे होने वाले सविकल्प ज्ञान से भी सत् और असत् का अध्यवसाय नहीं हो सकेगा । अर्थात् निर्विकल्पदर्शन जिस वस्तु को ग्रहण करता है, उसके पीछे होने वाला विकल्प भी उसी को ग्रहण करता है, न कि अन्य को । जैसे पीत दर्शन के होने पर तत्पृष्ठभावी विकल्प से नीलत्व का अध्यवसाय नहीं हो सकता है । अतएव विधि प्रतिषेध स्वभाव ही विशेष स्वलक्षणरूप वस्तु में सविकल्पना ( सांत्व ) को सिद्ध करते हैं । सर्वथा विधि और प्रतिषेधरूप स्वभाव का अभाव मानने पर यह "सत्" है, यह असत्" है इस प्रकार से किसी एक के भी दर्शन के अभाव का प्रसंग आता है क्योंकि इसको मैं " प्राप्त करता हूँ इसको नहीं, इत्यादि विकल्प की उत्पत्ति का भी विरोध हो जाता है । इसलिये सामान्य विशेषात्मक वस्तु ही स्वलक्षण है, न कि पुनः मात्र । अथवा सामान्यमात्र ही वस्तु स्वलक्षण है । या परस्पर निरपेक्ष 1 योजनेन । (डि० प्र० ) 2 विकल्पबुद्धया । ( ब्या० प्र०) 3 प्रत्यक्षम् । ( व्या० प्र० ) 4 कुतः । ( ब्या० प्र०) क्षणिक रूपस्य । ( दि० प्र० ) 5 स्वलक्षणस्य सदसत्स्वभावशून्यस्य दर्शने तत्पृष्टभाविना विकल्पेनापि तद्रहितमदर्शनात् । ( दि० प्र० ) 6 अध्यवसायायोगात् । ( व्या० प्र० ) 7 हे सौगत ! अस्तित्वनास्तित्वरहितस्य क्षणिक रूपस्य वस्तुनः प्रथमं निर्विकल्पकदर्शनं भवति । तदनन्तरं सविकल्पकज्ञानं जायते । तेन कृत्वा सदसत्त्वयोनिश्चय इति तवाभिप्रायो न घटते यतः वस्तुन्यसतो सदसतोः निश्चयाघटनात् । यथापीतदर्शनानन्तरं जातपीतज्ञानेन असत: नीलवर्णस्य निश्चयो न घटते । ( दि० प्र० ) 8 धर्मिणो वस्तुनः । ( दि० प्र० ) 9 अस्तित्व । ( दि० प्र० ) 10 नास्तित्व । ( दि० प्र०) Jain Education International सकल विकल्पातीत विशेषतदुभयरूप वस्तु स्वलक्षण है, For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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