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________________ अष्टसहस्र [ कारिका १६ धूमादिकृतकत्वादिसाध्यधमिधर्मस्य साध्येतरापेक्षया हेतुत्वा हेतुत्वविशेषणात्मकस्य' निदर्शनतयोपन्यस्तस्य प्रत्यक्षविषयत्वं निवेदितम् । ३८४ ] [ धूमादिकृतकत्वादिहेतवोऽपेक्षाकृतो हेतवोऽहेतवश्च भवन्ति ] तथा हि । धूमादयः कृतकत्वादयो वा क्वचिदग्निसलिलयोविनाशेतरयोर्वा साधनेतरस्वभावाभ्यां साक्षात्क्रियेरन् इतरथा' विशेष्यप्रतिपत्तेरयोगात् । न हि धूमादीना - मग्न्यादौ साध्ये साधनत्वं सलिलादावसाधनत्वं च विशेषणमप्रतिपद्यमानो 'विशेष्यान्धूमादीन् प्रतिपद्यते नाम, नापि कृतकत्वादीनां विनश्वरत्वे साध्ये साधनत्वमविनश्वरत्वे चासाधनत्वं विशेषणमप्रतीयन् " कृतकत्वादिहेतुन्विशेष्यान्प्रत्येतुमीशो यतोन्यादिविनश्वरशब्दादीन् विशेषात्मक वस्तु ही प्रत्यक्षज्ञान का विषय है इस प्रकार के कथन से ही "धूमादि और कृतकत्वादि” जो साध्य धर्मी के धर्मरूप हेतु हैं, उनमें साध्य की अपेक्षा से हेतुत्व और असाध्य की अपेक्षा से अहेतुत्व विशेषण पाया जाता है । अतएव दृष्टांतरूप से ग्रहण किये गये हेतु और अहेतुरूप विशेषण को प्रत्यक्ष का विषय सिद्ध कर दिया गया समझना चाहिये । [ धूमादि कृतकत्वादि हेतु अपेक्षाकृत हेतु, अहेतु दोनों ही होते हैं ] तथाहि - धूमादि अथवा कृतकत्वादि क्वचित् अग्नि और जल में अथवा विनाश और नित्य में हेतु एवं अहेतु के स्वभाव से वादी और प्रतिवादी के द्वारा साक्षात् किये जाते हैं । इतरथा - विशेष्य का ज्ञान ही नहीं हो सकेगा । अग्नि आदि को साध्य करने में धूमादि हेतु हैं, एवं जलादि को साध्य करने में वे ही धूमादि अहेतु हैं । इस प्रकार से उस हेतु, अहेतु को विशेषणरूप नहीं स्वीकार करते हुये आप बौद्ध धूमादि विशेष्य को नहीं जानते हैं एवं अनित्यत्व को साध्य करने में कृतकत्वादि हेतु हैं तथा नित्यत्व को साध्य करने में अहेतु हैं इस विशेषण को नहीं जानते हुये विशेष्यरूप कृतकत्वादि हेतुओं को जानने के लिये समर्थ नहीं हैं, जिससे कि अग्नि आदि और विनश्वर शब्दादि साध्य को भी विशेष्यरूप न समझें, प्रत्युत् उनको समझते ही हैं । इसलिये अवश्य ही उन हेतुओं को साक्षात् करते हैं क्योंकि साध्य 1 1 साध्योऽग्निः शब्दस्यानित्यत्वञ्च साध्यश्चासौ धर्मी च साध्यधर्मी तस्य धर्मः साध्यधमिधर्मः । धूमादिकृतकत्वादिश्चासौ साध्यधर्मिश्च स तथोक्तस्तस्य साधनस्येत्यर्थः । ( दि० प्र० ) 2 साधनं धूमादिरग्न्यादि साध्यं प्रति हेतु: कारणं भवति । जलादि साध्यं प्रति अहेतुः । इति सामान्यविशेषात्मकस्य साधनस्य दृष्टान्तत्वेन कथितस्य प्रत्यक्षज्ञानगोचरत्वं प्रतिपादितम् । एतावता किमायातं यथा जीवाद्यर्थः सामान्यविशेषात्मकः प्रत्यक्षेण प्रतिभाति । तथा साधनमपि सामान्यविशेषात्मकं प्रत्यक्षेण ज्ञेयम् । ( दि० प्र० ) 3 दृष्टान्तरूपेण व्याख्यातस्य साध्यापेक्षया हेतुत्वविशेषणात्मकस्येतरापेक्षयाऽहेतुरूपस्य साध्यधर्मविशिष्टकृतकत्वादिधमिधर्मस्य प्रत्यक्षविषयत्वं निवेदितम् । ( दि० प्र०) 4 धूमादय: । ( दि० प्र० ) 5 कृतकत्वादय: । ( दि० प्र०) 6 भा । (दि० प्र०) 7 साक्षात्कारणाभावे । ( दि० प्र०) 8 साधकासाधकविशेषणापेक्षया । (ब्या० प्र० ) 9 हेतुरूपान् । ( दि० प्र० ) 10 अजानन् । ( ब्या० प्र० ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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