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________________ विक्रम सं० २०२५ में शांतिवीरनगर (श्रीमहावीरजी) राज० में सम्पन्न पंचकल्याणक प्रतिष्ठा के अनंतर नूतन आचार्य श्री धर्मसागर जी महाराज विशाल संघ को लेकर स्व. आचार्य श्री वीरसागर जी महाराज की निषीधिका के दर्शनार्थ जयपुर खानिया पधारे । जयपुर शहर के श्रावकों के अत्यधिक आग्रह के कारण श्री आदिनाथ दिगम्बर जैन मंदिर (बक्शीजी), मेंहदी बालों का चौक, रामगंज बाजार, बड़ी चौपड़ में चातुर्मास स्थापना हुई। अनुवाद का शुभारंभ - वर्षायोग में एक स्थान पर लगातार चार माह तक निश्चित ठहरने के कारण साधुओं का ध्यान अध्ययन विशेष होता है। वरिष्ठता के कारण माताजी ने आयिका संघ संबंधि अनेक दैनिक व्यवस्थाओं को सम्हालने के साथ-साथ अध्ययन कराते हुए जब हम लोगों को अष्टसहस्री का अध्ययन कराना प्रारम्भ किया तो मैंने माताजी से निवेदन किया कि इतने बड़े ग्रंथ को मल से पढ़कर परीक्षा देना हमारे लिये कठिन है। ___माताजी ने हमारी प्रार्थना को सुनकर अनुवाद करना ही प्रारम्भ कर दिया । समय बीतने के साथ ही अनुवाद को भी तीव्र गति प्राप्त हो गई । अनुवाद कार्य समाप्ति से पूर्व वि० सं० २०२७ का आ का समय आ गया। इस चातुर्मास का योग टोंक (राज.) को प्राप्त हुआ। चातुर्मास समाप्ति तक अनुवाद कार्य भी चरमसीमा को प्राप्त हो चुका था। अनुवाद के समापन का श्रेय टोंक जिले में स्थित टोडारायसिंह नगर को प्राप्त हुआ। इस अष्टसहस्री ग्रंथ में अत्यधिक कठिन समझे जाने वाले भावना नियोग अधिकार को पहले तो माताजी ने भी अनुवाद करने से यह सोचकर छोड़ दिया था कि किसी विद्वान का सहारा लेकर इसका अनुवाद करना पड़ेगा किंतु जब किसी भी विद्वान ने इस कठिन कार्य में हाथ डालने की हिम्मत नहीं की तो स्वयं माताजी ने ही आत्मविश्वास के साथ भगवान् के समक्ष मंदिर में बैठकर मात्र दस दिन में ही उसे भी पूरा कर दिया। अनुवाद समापन समारोह वि० सं० २०२७ के पौष माह की सूदी बारस का वह उज्ज्वल दिवस था जिस दिन अनुवाद कार्य सम्पन्न हआ। इसके तीन दिन बाद ही आचार्य श्री धर्मसागर जी महाराज का ५७वां जन्म दिवस मनाया गया । अनुवाद कार्य की निविघ्न समाप्ति के हर्षोपलक्ष्य में पौष शु०१५ को विधान करके विशाल रथयात्रा के साथ अष्टसहस्त्री की अनुवादित हस्तलिखित कापियों को सुसज्जित सुन्दर पालकी में विराजमान करके जूलस के बाद आरती पूजनादि के द्वारा महती प्रभावना की गई। प्रकाशन से पूर्व की तैयारी माताजी ने तो अनुवाद पूर्ण कर आचार्यों के मनोभावों का रसास्वादन प्राप्त कर लिया किन्तु न्यायदर्शन के पाठक विद्यार्थी एवं स्वाध्याय प्रेमी भी अष्टसहस्री के मर्म को हृदयंगम कर सकें इस पुनीत भावना से इसे अनुवाद सहित शीघ्र प्रकाशित करने की उत्कट अभिलाषा उत्पन्न हुई। किन्तु प्रकाशन हेतु प्रेस में देने से पूर्व जो सबसे पहली समस्या सामने आई वह थी पुननिरीक्षण एवं संशोधन करके प्रेस कापी तैयार करने की। इस कार्य के लिये बड़ी आशाएँ थी परम तपस्वी पूज्य आचार्य श्री महावीर कीर्ति जी महाराज से । किन्तु उनका असमय में ही स्वर्गवास हो गया । तब आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज को अनुवादित कापियाँ पढ़ने के लिए दी गई। उन्हें वृद्धावस्था सथा शारीरिक कमजोरी के कारण स्वयं पड़ने की तो शक्ति नहीं थी अतः कुछ पृष्ठ पढ़कर सुनाये गये। जिस पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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