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________________ इस अष्टसहस्त्री ग्रंथ का अनुवाद तथा प्रकाशन क्यों ? कब ? एवं कैसे? लेखक-पीठाधीश क्षुल्लक मोतीसागर मोती माणक पन्ना आदि पिरोकर अथवा रंग बिरंगे फूलों से गूंथी गई माला जिस प्रकार से वक्षस्थल की शोभा बढ़ाती है उसी प्रकार से समंतभद्राचार्य ने भगवान् की भक्ति उनकी परीक्षारूप में करते हुए देवागम स्तोत्र की रचना की। उस स्तोत्र को ही आधार बनाकर अकलंकदेव ने अष्टशती का निर्माण किया तदनंतर उसी स्तोत्र पर टीकारूप में विद्यानंद स्वामी ने अब से बारह सौ वर्ष पूर्व अष्टसहस्री का सृजन किया। अष्टसहस्री में देवागम स्तोत्र को ऐसा गूंथा कि जिसने न्याय दर्शन का सेहरा बनकर जिनागम के मस्तक को गौरवान्वित किया। न्यायदर्शन की श्रृंखला में समय-समय पर अनेक दिग्गज विद्वान जैनाचार्यों द्वारा कड़ियां जोड़ते रहने से एक विशाल अर्गल बन गई जिससे उन्मत्त वादियों को बांधना (परास्त करना) सुगम हो गया। कालचक्र निरंतर चलते हए भी इस फौलादी सांकल को काट नहीं सका । यही कारण है कि विलासिता के इस दूर्गम समय में भी जिनमत का प्रचार-प्रसार निरंतर अविरल गति से हो रहा है। अनुवाद का बीजारोपण अष्टसहस्री का अनुवाद समस्त दार्शनिक जगत के लिये एक अनूठी उपलब्धि है । किसी भी मिष्टान्न को खा लेना और उसे खाकर उसका आन्नद प्राप्त करना बहुत ही सुगम है किन्तु उसके बनाने में कितना श्रम लगा यह वही जान सकता है जिसने उसे बनाया है अथवा आद्योपांत बनते देखा है व बनाने में सहयोग दिया है। किसी भी वस्तु को बनाने वाला या किसी काम को करने वाला जब उसमें तन्मय होता है तब वह उसका स्वाभाविक आस्वाद प्राप्त कर लेता है। प्रत्युत यहाँ तक देखने में आता है कि वस्तु के उपभोक्ता से भी अधिक आनंद निर्माता को प्राप्त होता है। ठीक यही स्थिती ग्रंथ निर्माता आचार्यों की रही है। परम निर्ग्रन्थ गुरू भगवान् कुंद-कुंद, पूज्यपाद, समंतभद्र, अकलंकदेव, जिनसेन, पुष्पदंत, भूतबली, अमृतचन्द्र, जयसेन, विद्यानंद आदि ने आत्मानंद में निमग्न हो होकर उन्हीं भावों को ताड़पत्रों पर लिपीबद्ध कर दिया। यह उसी का प्रतिफल है कि हम उनका स्वाध्याय करके अपनी आत्मानुभूति का मार्ग खोज रहे हैं । जो आनंद उन महामुनिराजों ने प्राप्त किया उसका शतांश भी हमको अनुपलब्ध है। अनुवाद का उद्देश्य जिस कार्य के बारे में सोचना भी कठिन था ऐसे इस अष्टसहस्री ग्रन्थ का भाषानूवाद पूज्य माताजी ने सहज में करके एक आश्चर्यजनक कार्य कर दिया। अधिकांश प्राचीन ग्रन्थों का सृजन शिष्यों के अध्यापन अथवा प्रश्नों के निमित्त से हुआ है। इस ग्रन्थ का भाषांतर भी माताजी द्वारा साधओं तथा शिष्यों को अध्ययन कराने के निमित्त से ही किया गया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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