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प्रत्येक प्रकरण में सप्तभंगी स्यादाद का जैसा सुन्दर विवेचन इस ग्रन्थ में है वैसा विवेचन अन्यत्र उपलब्ध नहीं है।
यह ग्रन्थ दश परिच्छेदों में विभक्त है। प्रथम परिच्छेद सबसे बड़ा है । आधा ग्रन्थ इसी में समाप्त है और आधे में नव परिच्छेद हैं।
८. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक नाम का ग्रन्थ टीका ग्रन्थों में एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है यह उमास्वामी आचार्य के तत्त्वार्थसूत्र पर भाष्य रूप से रचा गया है । पद्यात्मक शैली में है, साथ ही पद्य वार्तिकों पर उन्होंने स्वयं भाष्य
में व्याख्यान लिखा है। आचार्य महोदय ने इसकी रचना करके कमारिल, धर्मकीति जैसे प्रसिद्ध ताकिकों के द्वारा जैन दर्शन पर किये गए आक्षेपों का उत्तर दिया है। इस ग्रन्य की समता करने वाला जैन दर्शन में तो क्या अन्य किसी भी दर्शन में एक ग्रन्थ भी नहीं है।
जीव का अन्तिम ध्येय मोक्ष है। बन्धन बद्ध आत्मा को मुक्ति के अतिरिक्त और क्या चाहिये ? इस ग्रन्थ में मुक्ति के साधनभूत रत्नत्रयमार्ग का सुन्दर और गहन विवेचन किया गया है ।
तृतीय अध्याय के प्रथम सूत्र के भाष्य में "पृथ्वी घूमती है" । इस सिद्धांत का खंडन करके पृथ्वी को स्थिर सिद्ध किया है। इस प्रकरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि आज से १००० वर्ष पूर्व भी कुछ आम्नायी वैज्ञानिक विचारधारा के अनुसार पृथ्वी को घूमती हुई मानते थे। इसी प्रकार से चतुर्थ अध्याय में ज्योतीर्लोक का बहुत ही स्पष्ट और विस्तृत विवेचन है। इस ग्रन्थ का हिन्दी अनुवाद पं० माणिकचन्द जी न्यायाचार्य ने किया है । ग्रन्थ प्रकाशित हो चुका है। सभी के लिये पठनीय और मननीय है।
६. युक्त्यनुशासनालंकार यह भी एक टीकाग्रंथ है। श्री स्वामीसमंतभद्र ने ६४ कारिकाओं में "युक्त्यनुशासन" नाम से यह एक स्तुति रचना की है। इसमें स्वामी ने श्री भगवान महावीर के शासन को "सर्वोदय" शासन सिद्ध किया है। श्री विद्यानन्द आचार्य ने अलंकार स्वरूप ही टीका रचकर युक्त्यनुशासनालंकार यह सार्थक नाम दिया है।
स्वामी समंतभद्र ने अद्वैतवाद, द्वैतवाद, शाश्वतवाद, अशाश्वतवाद, दैववाद, पुरुषार्थवाद, बन्धवाद, मोक्षवाद और बन्धकारण-मोक्षकारणवाद आदि प्रमेयों की समीक्षा करके स्याद्वाद की सिद्धि की है। उसी का विस्तार टीकाकार ने किया है। श्री विद्यानन्द आचार्य के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करते हये डॉ० नेमिचन्द ज्योतिषाचार्य कहते हैं
"अतः हमें विद्यानन्द की-श्रोताव्याष्टसहस्री श्रुतैः किमन्यैः सहस्रसंख्यानः । विज्ञायेत ययव स्वसमयपरसमयसद्भावः । आदि गर्वोक्ति स्वाभावोक्ति प्रतीत होती है।"
वास्तव में जैसे इनकी अष्टसहस्री ग्रन्थ के प्रश्नोत्तर की शैली एक अनूठी है अनुपम है और सभी के लिये पठनीय है मननीय है, वैसे ही इनके सभी ग्रन्थ न्याय और सिद्धांत के सूक्ष्मज्ञान कराने में सर्वथा सक्षम हैं।
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1. तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा भाग २, पृ० २६५ ।
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