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५. विद्यानन्द महोदय नाम का यह ग्रन्थ आचार्य विद्यानन्द की सर्वप्रथम रचना है। इसके पश्चात ही इन्होंने तत्त्वार्थ श्लोकवातिक और अष्टसहस्री आदि महत्वपूर्ण ग्रन्यों की रचना की है। यह ग्रन्थ आज उपलब्ध नहीं है पर उसका नामोल्लेख श्लोकवातिक आदि ग्रन्थों में मिलता है।
६. श्रीपुर या अंतरिक्ष के पार्श्वनाथ की स्तुति में कुल ३० पद्य हैं। इस स्तोत्र में दर्शन और काव्य का गंगा-यमुनी संगम है। डॉ० नेमिचन्द जी ज्योतिषाचार्य कहते हैं कि-"इस स्तोत्र में सर्वज्ञ सिद्धि, अनेकान्तसिद्धि, भावाभावात्मक वस्तु निरूपण, सप्तभंगीनय, सुनय, निक्षेप, जीवादिपदार्थ, मोक्षमार्ग, वेद की अपौरुषेयता का निराकरण, ईश्वर के जगत् कर्तृत्व का खंडन, सर्वथा क्षणिकत्व और नित्यत्व मीमांसा, कपिलाभिमत पच्चीस सत्त्व समीक्षा, ब्रह्माद्वैत मीमांसा, चार्वाकसमीक्षा आदि दार्शनिक विषयों का समावेश किया गया है। भगवान पार्श्वनाथ को रागद्वेष का विजेता सिद्ध करते हुये उनकी दिव्यवाणी का जयघोष किया है।"
वास्तव में ३० पद्य मात्र की रचना में इतने विषयों का समावेश करके भी काव्यत्व का निर्वाह करना आचार्य महोदय का अपना एक विलक्षण ही पांडित्य है।
७. अष्टसहस्री-जैन न्याय का यह सर्वोत्तम ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ के अध्ययन की महत्ता बतलाते हुए स्वयं श्री विद्यानन्द भाचार्य कहते हैं
"श्रोतव्याष्टसहस्री श्रुतैः किमन्यैः सहस्रसंख्यानैः ।
विज्ञायेत ययैव, स्वसमय-परसमयसद्भावः ॥ हजारों ग्रन्थों के सुनने से क्या प्रयोजन है ? मात्र एक अष्टसहस्त्री ही सुनना चाहिये क्योंकि इस अष्टसहस्री के द्वारा ही स्वसिद्धान्त और पर सिद्धान्त का सद्भाव (स्वरूप) जाना जाता है।
श्री समंतभद्र स्वामी ने तत्त्वार्थसून महाशास्त्र पर गन्धहस्तिमहाभाष्य नामक भाष्य लिखते समय
में "मोक्षमार्गस्य नेतारं" इत्यादि मंगलाचरण के ऊपर ११४ कारिकाओं द्वारा आप्त की मीमांसा की है अतः उसका नाम "आप्तमीमांसास्तोत्र" है। "तथा देवागमनभोयान" से प्रारम्भ किया है अतः प्रारंभिक "देवागम" यद को लेकर इस रचना का "देवामगस्तोत्र" यह नाम भी प्रसिद्ध है।
श्री अकलंकदेव ने इस स्तोत्र पर ८०० श्लोक प्रमाण भाष्य रचना की है जिसका नाम "अष्टशती" प्रसिद्ध है।
___ अष्टशती समेत इस आप्तमीमांसा पर आचार्य श्री विद्यानन्द महोदय ने ८००० श्लोक प्रमाण में "अष्टसहस्री" नाम से "महाभाष्य" बनाया है। यह ग्रन्थ न्याय की प्रांजल-भाषा में रचा गया दुरूह और जटिल है। स्वयं ग्रन्थकार ने इसे “कष्टसहस्री" कहा है
कष्टसहस्री सिद्धा साष्टसहस्रीयमत्र में पुण्यात् ।' जो कष्टसहस्री सिद्ध है ऐसी यह अष्टसहस्री मेरे मनोरथ को पूर्ण करे ।
इस ग्रन्थ में एकादश नियोग, विधिवाद, भावनावाद और इनका निराकरण तथा तत्त्वोपप्लववाद, संवेदनाहत, चित्रात, ब्रह्मावत, सर्वज्ञाभाव आदि का निराकरण करके सर्वज्ञ सिद्धि, मोक्षतत्त्व की और उसके उपाय की सिद्धि का सुन्दर विवेचन है ।
1. तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परंपरा भाग २, पृ. ३६१ । 2. अष्टसहस्री मूल, पृ० १५७, 3. अष्टसहस्री पृ० २६५ ।
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