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"विद्यानन्द गंगनरेश शिवमार द्वितीय (ई० सन् ८१०) और राचमल्ल सत्यवाक्य प्रथम (ई० सन् ८१६) के समकालीन हैं और इन्होंने अपनी कृतियां प्रायः इन्हीं के राज्य समय में बनाई हैं। विद्यानन्द और तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक को शिवमार द्वितीय के और आप्तपरीक्षा, प्रमाणपरीक्षा तथा युक्त्यनुशासनालंकृति ये तीन कृतियां राचमल्ल सत्यवाक्य प्रथम (ई०८१६-८३०) के राज्यकाल में बनी जान पड़ती हैं। अष्टसहस्री श्लोकवार्तिक के बाद की और आप्तपरीक्षा आदि के पूर्व की रचना है-करीब ई० ८१०-८१५ में रची गयी प्रतीत होती है। तथा पत्रपरीक्षा, श्रीपुर पार्श्वनाथस्तोत्र और सत्यशासन परीक्षा ये तीन रचनायें ई० सन् ८३०-८४० में रची ज्ञात होती हैं । इससे भी आचार्य विद्यानन्द का समय ई० सन् ७७५-८४० प्रमाणित होता है।"
अतएव आचार्य विद्यानन्द का समय ई० सन् की नवम श ती है । इनके गृहस्थ जीवन का तथा दीक्षा गुरु का कोई विशेष परिचय और नाम उपलब्ध नहीं है। इनकी रचनाओं को दो वर्गों में विभक्त किया गया है
१. स्वतन्त्र ग्रन्थ और २. टीका ग्रन्थ ।
१. स्वतंत्र ग्रन्थ
१. आप्त परीक्षा (स्वोपज्ञ वृत्ति सहित), २. प्रमाण परीक्षा, ३. पत्र परीक्षा, ४. सत्यशासन परीक्षा, ५. श्रीपुर पार्श्वनाथ स्तोत्र, ६. विद्यानन्द महोदय । २. टीका ग्रन्थ
१. अष्टसहस्री, २. श्लोकवार्तिक, ३. युक्त्यनुशासनालंकार ।
१. आप्तपरीक्षा ग्रन्थ में १२४ कारिकायें हैं और इन्हीं ग्रन्थकर्ता द्वारा रचित वृत्ति है। इस ग्रन्थ में अहंत को मोक्षमार्ग का नेता सिद्ध करते हुये मोक्ष, आत्मा, संवर, निर्जरा आदि के स्वरूप और भेदों का प्रतिपादन किया है। इसमें ईश्वर परीक्षा, कपिलपरीक्षा, सुगतपरीक्षा, ब्रह्माद्वैत परीक्षा करके अहंत के सर्वज्ञत्व की सिद्धि की है।
२. प्रमाणपरीक्षा में प्रमाण का स्वरूप, प्रामाण्य की उत्पत्ति एवं ज्ञप्ति, प्रमाण की संख्या, विषय एवं उसके फल पर विचार किया गया है।
३. पत्रपरीक्षा नामक लघुकाय ग्रन्थ में विभिन्न दर्शनों की अपेक्षा "पत्र" के लक्षणों को उद्धृत कर जैन दृष्टिकोण से पत्र का लक्षण दिया गया है तथा प्रतिज्ञा और हेतु इन दो अवयवों को ही अनुमान का अंग बताया है।
४. सत्यशासनपरीक्षा की महत्ता के सम्बन्ध में पंडित महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्य ने लिखा है"उनकी यह सत्यशासन परीक्षा ऐसा एक तेजोमय रत्न है, जिससे जैन न्याय का आकाश दमदमा उठेगा। यद्यपि इसमें पाये हुये पदार्थ फुटकर रूप से उनके अष्टसहस्री आदि ग्रन्थों में खोजे जा सकते हैं पर इतना सुन्दर और व्यवस्थित तथा अनेक नये प्रमेयों का सुरुचिपूर्ण संकलन, जिसे स्वयं विद्यानन्द ने ही किया, अन्यत्र मिलना असंभव है।"
1. तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, भाग २, पृ० ३५२ । 2. अनेकांत, वर्ष ६, किरण ११
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