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इस प्रकार से श्रीमद् भट्टाकलंक देव के बारे में मैंने संक्षिप्त वर्णन किया है। वर्तमान में "निकलंक का बलिदान" नाम से इनका नाटक खेला जाता है। जो कि प्रत्येक मानव के मानसपटल पर जैन शासन की रक्षा और प्रभावना की भावना को अंकित किये बिना नहीं रहता है।
बाल्यकाल में “अकलंक निकलंक नाटक" देखकर ही मेरे हृदय में एक पंक्ति अंकित हो गई थी कि"प्रक्षालनाद्धि पंकस्य दूरादस्पर्शनं वरम्"
कीचड़ में पैर रखकर धोने की अपेक्षा कीचड़ में पैर न रखना ही अच्छा है । उसी प्रकार से गृहस्थावस्था में फंस कर पुनः निकलकर दीक्षा लेने की अपेक्षा गृहस्थी में न फंसना ही अच्छा है। इस पंक्ति ने ही मेरे हृदय में वैराग्य का अंकुर प्रगट किया था जिसके फलस्वरूप आज मैं उनके पदचिन्हों पर चलने का प्रयास करते हुये उनके विषय में कुछ लिखने के लिये सक्षम हुई हूँ। श्री विद्यानन्द आचार्यआचार्य विद्यानन्द ऐसे महान् तार्किक हुये हैं कि जिन्होंने प्रमाण और दर्शन सम्बन्धी ग्रन्थों की रचना
है। इनकी रचनाओं के अवलोकन से यह अवगत होता है कि ये दक्षिण भारत के कर्नाटक प्रान्त के निवासी थे। इसी प्रदेश को इनकी साधना और कार्य भूमि होने का सौभाग्य प्राप्त है । किंवदन्तियों के आधार से यह माना जाता है कि इनका जन्म ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इस मान्यता की सिद्धि इनके प्रखर पांडित्य और महती विद्वत्ता से भी होती है। इन्होंने वैशेषिक, न्याय, मीमांसा, वेदांत आदि दर्शनों का अध्ययन कर लिया था। इन आस्तिक दर्शनों के अतिरिक्त ये दिगनाग, धर्मकीर्ति और प्रज्ञाकर आदि बौद्ध ग्रन्थों के भी तलस्पर्शी विद्वान थे।
ये कब हुये हैं ? इनकी गुरुपरंपरा क्या थी ? इनका जीवन वृत्त क्या है ? इत्यादि बातें अनिर्णीत ही हैं। फिर भी विद्वानों ने इनका समय निश्चित करने के लिये पर्याप्त प्रयत्न किया है।
शक संवत् १३२० के एक अभिलेख में कहे गये नन्दिसंघ के मुनियों की नामावली में विद्यानन्द का नाम आता है जिससे यह अनुमान होता है कि इन्होंने नन्दिसंघ के किसी आचार्य से दीक्षा ग्रहण की है और महान भाचार्य पद को सुशोभित किया है। श्री वादिराज ने (ई० सन् १०५५) अपने "पार्श्वनाथ चरित' नामक काव्य में इनका स्मरण करते हुये लिखा है
"ऋजुसूत्रं स्फुरद्रत्नं विद्यानन्दस्य विस्मयः । शृण्वतमप्यलंकारं दीप्तिरंगेषु रंगति ॥"
आश्चर्य है कि विद्यानन्द के तत्त्वार्थ श्लोकवातिक भौर अष्टसहस्री जैसे दीप्तिमान अलंकारों को सुनने वालों के भी अंगों में दीप्ति आ जाती है, तो उन्हें धारण करने वालों की तो बात ही क्या है ?
इस प्रकरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि इनकी कीर्ति ई० सन् की १०वीं शताब्दी में चारों तरफ फैल रही थी।
पं० दरबारीलाल जी कोठिया ने विद्यानन्द के जीवन और समय पर विशेष विचार किया है
1. जनशिलालेख संग्रह, भाग १, लेखांक १०५। 2. पार्श्वनाथचरित्र, १/१८ ।
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