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________________ शेषभंग की सिद्धि ] प्रथम परिच्छेद [ ३४५ स्त्यपूर्वस्य वा। सर्वथा नित्यस्य सामान्यस्य क्रमाक्रमाभ्यामर्थक्रियाविरोधाच्च न तस्य कस्याञ्चिदर्थक्रियायामुपयोगो यतस्तत्प्रतिपादनाय शब्दप्रयोगः स्यात् । ततो नार्थे कस्यचित्प्रवृत्तिरुपपद्येत । [ सामान्यं साक्षात् अर्थक्रियां न करोति तथैव परंपरयापि न करोति इति कथयंति जैनाचार्याः ] लक्षितलक्षणया वृत्तिः कथंचिदतादात्म्ये न भवेत, संबन्धान्तरासिद्धेः कार्मुकादिवत् । न हि यथा कार्मुकपुरुषयोः संयोगः संबन्धः सिद्धस्तथा सामान्यविशेषयोरपि । न च समवायः पदार्थान्तरभूतः, तत्प्रतीत्यभावात् । प्रतीयमानस्तु समवायः कथंचित्तादात्म्यमेव, 10अविष्वग्भावलक्षणत्वात्तस्य । इति शब्देन लक्षितं सामान्यं विशेषान् लक्षयति । ततस्तत्रार्थक्रियार्थिनः अदष्ट का रूपज्ञान में आधिपत्यरूप से व्यापार नहीं है। अतएव सर्वथा नित्य रूप सामान्य में क्रम अथवा युगपत् से अर्थक्रिया का विरोध है एवं उसका किसी भी अर्थक्रिया में कुछ भी उपयोग नहीं है, जिससे कि उस सामान्य का प्रतिपादन करने के लिए शब्द प्रयोग हो सके अर्थात् नहीं हो सकता है। इसीलिये उस नित्य सामान्य से किसी भी अर्थ में किसी मनुष्य की भी प्रवृत्ति नहीं हो सकेगी, क्योंकि सामान्य और विशेष में आपने कोई संबंध ही नहीं माना है। [ अब आचार्य सामान्य का साक्षात् अर्थक्रिया में उपयोग नहीं है इसका कथन करके परम्परा से भी उपयोग का खण्डन करते हैं ] परम्परा से लक्षित लक्षणा से कथंचित अतादात्म्य में वृत्ति नहीं हो सकती है, क्योंकि आपके यहाँ संयोग एवं समवाय को छोड़कर अन्य कोई संबंधान्तर कार्मुक आदि के समान सिद्ध नहीं है। जिस प्रकार से धनुष और पुरुष का संयोग संबंध सिद्ध है, उसी प्रकार से सामान्य और विशेष । का भी संबंध सिद्ध नहीं है और पदार्थान्तर भूत-सामान्य विशेष से रहित समवाय भी सिद्ध नहीं है, क्योंकि उसकी प्रतीति का ही अभाव है। प्रतीति में आता हुआ जो समवाय है, वह तो "कथंचित् तादात्म्य" ही है, क्योंकि हमारे यहाँ तादात्म्य को अविष्वग्भाव (अपृथक्भाव) लक्षण वाला माना गया है। इस उपर्युक्त प्रकार से शब्द से लक्षित सामान्य विशेषों को भी लक्षित (ग्रहण) करता है। 1 सामान्यस्य । (दि० प्र०) 2 ततो वार्थे । इति पा० । (दि० प्र०, ब्या० प्र०) अथवा तत: सामान्यात् पुरुषस्यार्थे स्वज्ञानोत्पादने कुतः प्रवृत्ति रुपपद्येत् । अपितु न कुतोपि । तस्मात्सामान्यविशेषयोः कथञ्चिदैक्येन लक्षणावृत्तिर्भवेत् । (दि० प्र०) 3 तल्लक्षणयावृत्तिः। इति पा०। (दि० प्र०) अर्थः प्रवृत्तिः कुतो नास्ति लक्षितलक्षणया प्रवृत्तिः स्यादित्याह । सामान्याद्विशेषखण्डादि । (दि० प्र०) 4 धनुः । (दि० प्र०) 5 वैशेषिकमताभ्युपगतोभिन्नपदार्थः सोपि न = अन्यसम्बन्धस्य सिद्धिर्नास्ति । (दि० प्र०) 6 भिन्नः । (दि० प्र०) 7 पदार्थान्तर । समवायः । (दि० प्र०) 8 संबन्धसमवायः कश्चित्प्रतीयमानोस्त्येव । (ब्या० प्र०) 9 संबन्धः । (ब्या० प्र०) 10 सामान्यविशेषयोमिलतत्वात् । अपृथक् =संयोग: समवायः विशेषणविशेष्यभावोऽविनाभावः सामान्यविशेषभाव इति पञ्चविधः संबन्धी ज्ञेयः । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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