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________________ ३४६ ] [ कारिका १६ प्रवृत्तिरसंबन्धान्नोपपद्येत' संयोगसमवायव्यतिरिक्तस्य' संबन्धान्तरस्यासिद्धेः । विशेषणविशेष्यभावः संबन्धान्तरमिति चेन्न', तस्यापि स्वसंबन्धिव्यतिरेकैकान्ते' 'संबन्धान्तरापेक्षणस्यावश्यंभावादनवस्थाप्रसङ्गात् तस्य' कथंचित्स्वसंबन्धितादात्म्ये स्वसिद्धान्तविरोधात् । एतेनाविनाभावः संबन्धस्तयोः प्रत्युक्तः ' । सामान्यविशेषयोः सामान्यविशेषभाव एव संबंध इत्यपि मिथ्या, कथञ्चिदतादात्म्ये तदनुपपत्तेः सह्यविन्ध्यवत् । तन्न नित्यसर्वगतामूर्तेकरूपं सामान्यं सर्वथा' व्यक्तिभ्यो भिन्नमन्यद्वा वाच्यम्", अर्थक्रियायां साक्षात्परम्परया" वानुपयोगात् । तादृशो अष्टसहस्री अर्थक्रिया के इच्छुक जन विशेष ज्ञान से उस सामान्य में संबंध के न होने से प्रवृत्ति नहीं कर सकते हैं, क्योंकि संयोग और समवाय को छोड़कर अन्य कोई संबंध आपके यहाँ सिद्ध ही नहीं है । प्रश्न- - हमारे यहाँ विशेषण- विशेष्य भावरूप ( विशेष सामान्यवान् है ) ऐसा भिन्न संबंध मौजूद है । उत्तर - नहीं, क्योंकि उस विशेषण- विशेष्यभाव संबंध को स्वीकार करने पर हम यह प्रश्न करेंगे कि वह संबंध सामान्य और विशेष से भिन्न है या अभिन्न ? यदि आप उस संबंध को एकांत से अपने सम्बन्धी से भिन्न स्वीकार करेंगे तब तो उस सम्बन्ध का सम्बन्ध कराने के लिए एक संबंधान्तर और कल्पित करना होगा, पुनः यदि वह भी उससे भिन्न रहा तो आगे-आगे सम्बन्धान्तर की कल्पना करते रहना अवश्यंभावी होने से अनवस्था दोष आ पड़ेगा । यदि आप कहें कि वह विशेषण- विशेष्यभाव सम्बन्ध अपने सम्बन्धी सामान्य और विशेष से कथंचित् तादात्म्य (अभिन्न) रूप है तब तो आपका सिद्धान्त जो भेद पक्ष है उसमें विरोध आ जावेगा । इसी कथन से उन सामान्य और विशेष में “अविनाभाव संबंध है" इसका भी खण्डन कर दिया गया समझना चाहिये । प्रश्न – सामान्य और विशेष में सामान्य विशेषभाव ही सम्बन्ध हैं । उत्तर - यह कथन भी मिथ्या है, क्योंकि कथंचित् अतादात्म्य-भेद में वह संबन्ध बन ही नहीं सकता है जैसे कि सह्य और विंध्य पर्वत का संबंध नहीं बनता है । इसलिये जो सामान्य है वह नित्य, 1 सम्बन्धाभावात् । ( दि० प्र०) 2 भिन्नस्य । ( दि० प्र०) 3 योगो वदति संयोगसमवायो मा भवतां विशेषणविशेष्यभाव : संबन्धोस्तीति चेन्न विशेषणविशेष्याभ्यां संबन्धिभ्यां संबन्धो भिन्नभिन्नो वाऽभिन्नश्चेत्संबन्धत्वंगतं भिन्नश्चेत्संबन्धान्तरापेक्षणादनवस्था । ( दि० प्र०) 4 सो भिन्नभिन्नो वा न तावदभिन्नः सामान्यविशेषरूपतापत्तेः । ( दि० प्र० ) 5 सम्बन्धसिद्धयर्थम् । (ब्या० प्र० ) 6 तस्यापि स्वसंबन्धिव्यतिरेकैकान्ते इत्यादिना । ( दि० प्र० ) 7 व्यक्त्यभावे सामान्याभाव: । (ब्या० प्र० ) 8 निराकृतः । ( दि० प्र० ) 9 खण्डानपेक्षयापि । (दि० प्र०) 10 प्रागुक्तया लक्षितलक्षणया । ( दि० प्र० ) 11 गोत्वादिशब्देन निश्चितं सामान्यं विशेषः न लक्षयति इति परम्परया । (दि० प्र० ) 12 व्यक्तिभ्योभित्रमभिन्नं सत्सामान्यं वाच्यं न । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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