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________________ ३४४ ] अष्टसहस्री [ कारिका १६ विकल्पद्वयानतिक्रमः । प्रथम विकल्पे सामान्यस्य व्यक्तिकार्यत्वप्रसङ्गः तदभिन्नस्योपकारस्य करणात् । ततो भिन्नस्य करणे व्यपदेशासिद्धिः । तत्कृतोपकारेणापि तस्योपकारान्तरकरणऽनवस्थानम् । द्वितीयविकल्पे व्यक्तिसहभाववैयर्थ्यम्', अकिञ्चित्करसहकारिविरहात् । सामान्येन सहकज्ञाने व्यापाराद्वयक्तीनां तत्सहकारित्वेपि किमालम्बनभावेन तत्र तासां व्यापारोऽधिपतित्वेन वा ? प्राच्यकल्पनायामेकानेकाकारं सामान्यविशेषज्ञानं स्यान्न पुनरेकसामान्यज्ञानं, स्वालम्बनानुरूपत्वात्सकलविज्ञानस्य । द्वितीयकल्पनायां तु व्यक्तीनामनधिगमेपि 'सामान्यज्ञानप्रसङ्गः । न हि रूपज्ञाने चक्षुषोधिगतस्याधिपतित्वेन' व्यापारो यदि प्रथम विकल्प करें कि उस सामान्य का विशेषों के द्वारा उपकार किया जाता है, तब तो उसमें भी दो विकल्प किये जा सकेंगे कि वह उपकार सामान्य से अभिन्न है या भिन्न ? यदि उस सामान्य का जो विशेषों के द्वारा उपकार है, वह उपकार उस सामान्य से अभिन्न है, तब तो उस सामान्य में व्यक्ति के कार्यत्व का प्रसंग प्राप्त हो जावेगा, क्योंकि उसने सामान्य से अभिन्न ही उपकार को किया है और यदि उस सामान्य से वह उपकार भिन्न है तब तो यह इसका उपकार है, यह व्यपदेश ही नहीं बन सकेगा। यदि आप सम्बन्ध की सिद्धि के लिये ऐसा कहें कि उसके द्वारा किये गये उपकार से भी उस सामान्य का उपकारांतर (दूसरा उपकार) किया जाता है, तब तो अनवस्था दोष आ जाता है। यदि दूसरा विकल्प लेवें कि उस सामान्य का विशेषों के द्वारा उपकार नहीं है, तब तो विशेष का सहभाव ही व्यर्थ हो जावेगा, क्योंकि जो अकिंचित्कर है, वह सहकारी नहीं हो सकता है। यदि आप कहें कि तत्सहकारीपना होने पर भी उन विशेषों का सामान्य के साथ एक ज्ञान में व्यापार है, तब तो यह बतलाइये कि उन विशेषों का वह व्यापार क्या आलंबनभाव (विषयभाव) से है या आधिपत्य (अनधिगमरूप से व्यापार का होना आधिपत्य है) रूप से है ? यदि प्रथम विकल्प स्वीकार करें तब तो एकानेकाकार रूप सामान्य विशेषज्ञान सिद्ध होगा, न कि पुनः एक सामान्यज्ञान क्योंकि सकल विज्ञान अपने आलम्बन-विषय के ही अनुरूप होते हैं अर्थात् उस ज्ञान में विषयभाव से सभी विशेष भी व्याप्त रहते हैं और यदि दूसरा विकल्प ग्रहण करते हैं तब तो विशेषों का अधिगम-ज्ञान न होने पर भी सामान्यज्ञान का प्रसंग प्राप्त हो जावेगा क्योंकि रूपज्ञान में अधिगत चक्षु का आधिपत्यरूप से व्यापार नहीं है अथवा अपूर्व अर्थात् अधिगत शुभाशुभ लक्षण 1 सामान्यस्य । (ब्या० प्र०) 2 किञ्चिदकुर्वत: सहकारित्वाभावात् । (ब्या० प्र०) 3 व्यक्तयः सामान्येन मिलिता एकज्ञानमुत्पादयन्ति । (दि० प्र०) 4 चक्षुराद्युपादानत्वेन । आलम्बनम् । (दि० प्र०) 5 व्यक्त्यपेक्षया । (ब्या० प्र०) 6 अधिपतित्व । (दि० प्र०) 7 व्यक्तिसामान्ययोर्व्यापाराविशेषात् । (ब्या० प्र०) 8 अपरिज्ञाने। (दि० प्र०) 9 उत्पद्यताम् । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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