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________________ शेषभंग की सिद्धि ] प्रथम परिच्छेद [ ३४३ [ अद्वैतवादी सत्सामान्यमेव मन्यते तस्य निराकरणं ] तत्र वस्तु सत्सामान्यं कथं सदप्यवक्तव्यमिति चेत्तस्य पराभ्युपगमात् सतोपि वचनानुपपत्तेः । ___न खलु सर्वात्मना सामान्यं वाच्यं, तत्प्रतिपत्तेरर्थक्रियां प्रत्यनुपयोगात् । न हि गोत्वं वाहदोहादावुपयुज्यते, स्वविषयज्ञानमात्रेपि' तस्या सामर्थ्यात् । व्यक्तिसहितस्य सामान्यस्य तत्र सामर्थ्यपि न 'प्रतिपन्नसकलव्यक्तिसहितस्य सामर्थ्यम्, असर्वज्ञस्य सकलव्यक्तिप्रतिपत्तेः सकृदसंभवात् । अप्रतिपन्नाखिलव्यक्तिभिः सहितस्य सामर्थ्य पुनरेकव्यक्तेरप्यग्रहणे सामान्यज्ञानप्रसङ्गः । कतिपयव्यक्तिसहितस्य सामर्थ्य तस्य ताभिरुपकारानुपकार [ अद्वैतवादी सत्सामान्यमात्र को मानते हैं उनका खण्डन ] प्रश्न- इस अद्वैतपक्ष में वस्तु विशेषरहित सत्सामान्य है वह सत् होकर भी अवक्तव्य कैसे है ? उत्तर-हम अद्वैतवादियों ने उसे इस तरह से ही स्वीकार किया है क्योंकि वह सत्-विद्यमान है, तो भी वचन से उसे कह नहीं सकते हैं। जैन-सामान्य यदि सामान्य की अपेक्षा के समान ही विशेष की अपेक्षा से भी सामान्यरूप ही है, तब तो वह सामान्य शब्द के द्वारा भी वाच्य नहीं है क्योंकि उस सामान्य का ज्ञान होने से अर्थक्रिया के प्रति कुछ भी उपयोग नहीं है। पुरुषलिंग अथवा स्त्रीलिंग की अपेक्षा से रहित मात्रसामान्य गोत्व भार ढोने अथवा दूध दुहने के उपयोग में नहीं आता है, क्योंकि अपने विषय का ज्ञानमात्र होने पर भी उस सामान्य में सामर्थ्य नहीं है और विशेषसहित सामान्य की उस स्वविषय के ज्ञानमात्र में सामर्थ्य के होने पर भी प्रतिपन्न सकलविशेषसहित सामान्य में सामर्थ्य नहीं है, क्योंकि जो असर्वज्ञ है, उसको युगपत् सम्पूर्ण विशेषों का ज्ञान होना असम्भव है और जिसने अखिल विशेषों को प्राप्त नहीं किया है, उनसे सहित सामान्य में स्वविषय के ज्ञान को उत्पन्न करने की सामर्थ्य के होने पर भी पुनः एक व्यक्ति (विशेष) के ग्रहण न करने पर सामान्य ज्ञान का प्रसंग आता है, क्योंकि अप्रतिपन्नपना दोनों में समान ही है। ___ एवं कतिपय व्यक्ति सहित में सामर्थ्य के होने पर उस सामान्य का उन विशेषों के द्वारा उपकार है या नहीं ? इस प्रकार के दो विकल्पों का उलंघन नहीं हो सकेगा अर्थात् दो विकल्प आ ही जावेंगे। 1 सत्सामान्यस्य । (दि० प्र०) 2 पराभ्युपगममात्रान्न तु परमार्थतः । (दि० प्र०) 3 सर्वप्रकारेणापि । (दि० प्र०) 4 सर्वप्रकारेण पृथग्रूपेण । यत् । सामान्य । शब्दात् । (दि० प्र०) 5 पर्यायाश्रयणात् । (दि० प्र०) 6 केवलं गोत्वं सामान्यम् । (दि० प्र०) 7 वाहदोहादावसमर्थनमपि सामान्यं स्वविषयज्ञानोत्पादने समर्थत्वात् कथमनुपयोगीत्युक्ते । (दि० प्र०) 8 बसः । (दि० प्र०) व्यक्तिः सहितं न च स्वविषयज्ञानमुत्पादयति न तावदसहितं केवलस्य तस्यासामर्थ्यात् स्वतन्त्रत्वेनाप्रतीयमानत्वात् । (ब्या० प्र०) 9 स्वविषयज्ञानजनने । (दि० प्र०) 10 सकलव्यक्तिसहितस्य कतिपयव्यक्तिसहितस्य न तावत्सकलव्यक्तिभिः सहितस्य तासां प्रतीतिः पूर्वकत्वात् । सा ज्ञाता अज्ञाता वा न तावदज्ञाता। (ब्या० प्र०) Jain Education International Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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