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________________ अनेकांत की सिद्धि ] प्रथम परिच्छेद [ ३०३ कल्पत्वात् । मूर्छाचैतन्यवदिति । न हि निर्विकल्पकदर्शनप्रतिभासि वस्तु व्यवतिष्ठेत येनानभिलपन्नपि तत् पश्येत् ।। [ शब्दाद्वैतवादस्य निराकरणं ] न सोस्ति प्रत्ययो लोके यः शब्दानुगमादृते । अनुविद्धमिवाभाति सर्व शब्दे प्रतिष्ठितम ॥१॥ वाग्रूपता चेदुत्क्रामेदवबोधस्य शाश्वती । न प्रकाशः प्रकाशेत सा हि प्रत्यवशिनी ॥२॥ इति दर्शनान्तरमप्यनालोचिततत्त्वं, सर्वात्मनाभिधेयत्वेपि' प्रत्यक्षतराविशेषप्रसङ्गात् । चक्षुरादिशब्दादिसामग्रीभेदात्प्रत्यक्षेतरयोविशेष' इति चेन्न, प्रत्यक्षादिव शव्दादेरपि10 वस्तु वस्तु को सद्भाव और अभाव दोनों ही धर्मों के द्वारा नहीं कह सकने पर तो यह जगत् केवल मूकस्वरूप ही हो जावेगा। पुनः शब्द के द्वारा विधि और प्रतिषेध व्यवहार ही नहीं बन सकेगा क्योंकि सर्वात्मना शब्द के द्वारा नहीं कहने योग्य स्वभाव को निर्विकल्पज्ञान निश्चित नहीं कर सकता है और अनध्यवसेय -- अनिश्चितवस्तु प्रमित-जानो भी नहीं जा सकेगी, क्योंकि जाने हुये पदार्थ भी उसी नहीं जाने हुये के समान ही रहेंगे, जैसे कि मूर्छा को प्राप्त हुये चैतन्य के द्वारा गृहीत भी वस्तु अनुगृहीतकल्प है। निर्विकल्पदर्शन के द्वारा प्रतिभासित वस्तु की व्यवस्था नहीं बन सकतो है कि जिससे शब्द के द्वारा नहीं कहते हुये भी उसको देख सकें-जान सकें। इसी बीच में शब्दाद्वैत को मानने वाले को बोलने का अवसर मिल जाता है और वह बीच में ही अपने शब्दाद्वैत को ले आता है। [ शब्दाद्वैतवादी का खण्डन ] शब्दाद्वैतवादी-श्लोकार्थ-लोक में ऐसा कोई भी प्रत्यय--ज्ञान नहीं है, जो शब्दानुगम के बिना पाया जावे, अतएव सभी वस्तु शब्द में अनुविद्ध होकर ही सत्रूप से प्रतिष्ठित हैं। श्लोकार्थ--शाश्वत वचनरूपता यदि ज्ञान का उलंघन कर जावे, तो ज्ञान प्रकाशित नहीं हो सकेगा, क्योंकि वह वचनरूपता ज्ञान के प्रकाश में हेतुभूत है। ___ जैन-आप शब्दाद्वैतवादी का यह कथन बिना विचार किये ही सुन्दर है। क्योंकि सामान्य के समान विशेषरूप से भी अभिधेय मानने पर प्रत्यक्ष और इतर-अप्रत्यक्ष में समानता का ही प्रसंग प्राप्त हो जावेगा। 1 एतेन जगतो बोधत्वं प्रतिपादितम् । (दि० प्र०) 2 निर्विकल्पकप्रतिभासिवस्तु । (दि० प्र०) 3 अनुस्यूतत्त्व । (दि० प्र०) 4 ततश्च । संविद्धम् । (दि० प्र०) 5 तदा। (दि० प्र०) 6 स्वरूपेण । नित्या। (दि० प्र०) 7 शब्देन । आगमादि। (दि० प्र०) 8 तथा च प्रत्यक्षेण प्रतीयमानाशेषविशेषस्य शब्दादपि प्रतीतिप्रसंगोऽन्यश्वाशब्देनानभिधीयमान विशेषस्यापि प्रत्यक्षात्प्रतीतौ न सोस्ति प्रत्ययो लोके यः शब्दानुगमादृते इत्येतद्विरुद्धचते प्रत्यक्षात्प्रतीयमानविशेषेशब्दानुगमाभावात् । (दि० प्र०) १ लिङ्गादि। (दि० प्र०) 10 आगमः । अनुमानादि । (ब्या० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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