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________________ ३०४ ] अष्टसहस्री [ कारिका १४ विशेषप्रतिपत्तेरविशेषसिद्धेः, प्रत्यक्षगोचरविशेषस्य शब्दागोचरत्वेऽनभिधेयत्वापत्तेः । प्रत्यक्षात्मकशब्दगोचरत्वात्तस्याप्यभिधेयत्वमेवेति चेत्तथैवानुमानागमज्ञानात्मकशब्दविषयत्वमस्तु । ततश्च प्रत्यक्षतरयोः स्पष्ट विशेषप्रतिभासित्वसिद्धरविशेषप्रसङ्गः । तयोविशेषे तदात्मकशब्दयोर्भेदप्रसङ्गात्कुतः शब्दाद्वैतसिद्धि ? स्यान्मतम् “अद्वय एव शब्दः, केवलं प्रत्यक्षोपाधिः स्पष्टविशेषप्रतिभासात्मकः, शब्दाद्युपाधिः पुनरस्पष्टसामान्यावभासात्मकः, पीतेतरोपाधेः स्फटिकस्य पीतेतरप्रतिभासित्ववत्' इति तदसत्, प्रत्यक्षेतरोपाधीनामपि शब्दात्मकत्वे भेदासिद्धेः, तदनात्मकत्वे शब्दाद्वैतव्याघातात्, तेषामवस्तुत्वे स्पष्टेतरप्रतिभासभेदनिबन्धनत्व शब्दाद्वैतवादी-चक्षु आदि इन्द्रियां और शब्दादिरूप सामग्री के भेद से प्रत्यक्ष और इतर में अंतर सिद्ध हो जावेगा। जैन नहीं, प्रत्यक्ष के समान ही शब्दादिक से भी वस्तु विशेष का ज्ञान होने पर तो विशेष की सिद्धि नहीं हो सकेगी। तथा यदि प्रत्यक्ष के विषयभूत विशेष को शब्द के अगोचर मान लोगे तब तो उसको अनभिधेय-शब्द से अवाच्यपने की आपत्ति आ जावेगी। शब्दाद्वैतवादी-प्रत्यक्ष के विषयभूत विशेष को "प्रत्यक्ष" यह शब्द तो विषय करेगा ही। पुनः वह प्रत्यक्ष शब्द भी तो शब्दमय ही है, अतः उसमें भी वाच्यपना सिद्ध ही है। अर्थात् प्रत्यक्ष के विषयभूत विशेष को 'प्रत्यक्ष' इस शब्द के द्वारा ही विषय करने पर सभी सामान्य एवं विशेष वस्तु शब्द का ही विषय हैं, यह बात सुतरां-सिद्ध हो जावेगी। जैन - यदि ऐसी बात है, तब तो उसी प्रकार से अनुमान और आगम ज्ञानात्मक जो शब्द हैं, वे ही उनके विषय होवें, तब तो पुनः प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष में स्पष्ट विशेष प्रतिभासित्व की सिद्धि हो जाने से समानता का ही प्रसंग आ जावेगा। यदि आप कहें कि उन प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष में अ.तर है तब तो तदात्मक प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष शब्द में भी भेद प्राप्त हो जावेगा पुनः शब्दाद्वैत की सिद्धि कैसे हो सकेगी? शब्दाद्वैतवादी-'अद्वैतरूप ही शब्द है और वह केवल 'प्रत्यक्ष' इस उपाधि से सहित तथा स्पष्ट - विशेष प्रतिभासात्मक है एवं शब्दादि उपाधियाँ (यह आगम ज्ञानात्मक शब्द है यह अनुमान ज्ञानात्मक शब्द है इत्यादि। पन: अस्पष्ट सामान्यावभासात्मक हैं जैसे कि पीली और नीली उपाधि है जिस में, ऐसा स्फटिक पीला एवं नीला प्रतिभासित होता रहता है। जैन-यह कथन भी असत् ही है। प्रत्यक्ष और इतर उपाधियों को भी शब्दात्मक स्वीकार करने पर उन दोनों में भेद नहीं सिद्ध होगा पुनः प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों समान ही हो जावेगे और यदि उन दोनों उपाधियों को शब्दात्मक न मानों, तब तो शब्दाद्वैत का ही खण्डन हो जावेगा। एवं प्रत्यक्ष और इतर इन दोनों उपाधियों को अवस्तुरूप स्वीकार करोगे, तब तो स्पष्ट और अस्पष्ट प्रतिभास 1 रविशेषः सिद्धयेदिति वा पाठः । अभेदः । (दि० प्र०) 2 चक्षुरादिशब्दाद्ययोः । (दि० प्र०) 3 प्रत्यक्षेत रभेदश्चेत्दूषणमेत् । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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