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________________ अनेकांत की सिद्धि ] प्रथम परिच्छेद [ ३०१ सर्वथोभयरूपत्वे वा जात्यन्तरप्रतिपत्तेरयोगात् पानकवदेव । न हि तत्र दध्यादयः एव न पुनर्जात्यन्तरं पानकमित्यभिधातुमुचितं, 'पानकमिदं सुस्वादु सुरभीति संप्रत्ययात् । तद्वद्वस्तुनि न सदाद्यंश एव प्रतीतिविषयः', तदंशिनो जात्यन्तरस्य प्रतीत्यभावापत्तेः । तथा चानवस्थादिदोषानुषङ्गः । येनात्मना सत्त्वं तेनासत्त्वस्याभ्युपगमे येन चासत्त्वं तेन 'कथञ्चित्सत्त्वानुमनने पुनः प्रत्येकमुभयरूपोपगमादनवस्था स्यात् । तथानभ्युपगमे नोभयस्वभावमशेषमिति ते प्रतिज्ञाविरोधः । येनात्मना सत्त्वं तेनैवासत्त्वे विरोधो वैयधिकरण्यं वा शीतोष्णस्पर्शविशेषवत् । संकरव्यतिकरौ च, युगपदेकत्र सत्त्वासत्त्वयोः प्रसक्तेः । परस्परविषयगम भाट्ट-इस प्रकार से वस्तु जात्यंतररूप ही उभयात्मक है । जैन-ऐसा कहना युक्त नहीं है । अथवा वस्तु को सर्वथा उभयात्मक स्वीकार करने पर जात्यंतररूप प्रतिपत्ति का अभाव हो जाता है। जैसे कि ठंढाई को सर्वथा मिश्ररूप मानने पर जात्यंतरपने का उसमें अभाव है, उस ठंढाई में दधि आदि ही हैं, वह पानक जात्यंतररूप नहीं है, ऐसा भी कथन उचित नहीं है। यह ठंढाई सुस्वादु है सुगंधित है, ऐसा संप्रत्यय होता है, उसी प्रकार से वस्तु में सत् आदि अंश ही प्रतीति के विषय नहीं हैं अन्यथा जात्यंतररूप सदादि धर्म सहित अंशी के प्रतीति का अभाव हो जावेगा । पुन: उस प्रकार से अनवस्था आदि दोषों का प्रसंग प्राप्त हो जावेगा। अतएव जिस स्वरूप से सत्त्व है, उसी रूप से असत्त्व को स्वीकार करने पर अथवा जिस पर रूपादि से असत्त्व है उसी रूप से कथंचित् सत्त्व के मान लेने पर और पुनः प्रत्येक सत्त्व और असत्त्व को उभयरूप स्वोकार कर लेने पर अनवस्था आ जावेगी। सत्त्व को असत् प्रकार से और असत्त्व को सत्रूप से उभयरूप को स्वीकार न करने पर अशेष वस्तु उभय स्वभाव नहीं है इस प्रकार से आप भाट्टों की प्रतिज्ञा--मान्यता का विरोध हो जावेगा। जिस स्वरूपादि से वस्तु सत्रूप है, उसी स्वरूपादि से ही असत्रूप मानने पर विरोध अथवा वैयधिकरण दोष आ जाता है, शीतोष्ण स्पर्शविशेष के समान । तथा युगपत् एक वस्तु में सत्त्व-असत्त्व का प्रसंग होने से संकर और व्यतिकर दोष भी आते हैं और परस्पर के विषय को प्राप्त करने से संशय दोष भी आ जाता है क्योंकि वस्तु में किस प्रकार से तो सत्त्व है और किस प्रकार से असत्त्व है, इस प्रकार का निश्चय नहीं हो सकता है। इसी निमित्त से अप्रतिपत्ति और अभाव नाम का दूषण भी आ 1 धमिमात्रं धर्ममात्रं वा भवेत् । (ब्या० प्र०) 2 दध्यादय एव प्रतिभान्ति न पुनर्जात्यन्तरं पानकमित्यभिधातुमुचितं न । (दि० प्र०) 3 अन्यथा । जीवादेः । स्वरूपादिचतुष्टयेन । (दि० प्र०) 4 कथञ्चिदित्यन्धपदं मीमांसकस्य = यथा संख्यं सम्बन्ध: सर्वेषां यूगपत्प्राप्ति: संकरः परस्परविषयगमनं व्यतिकरः। (दि० प्र०) 5 अत्राह सौगत: हे स्याद्वादिन् ! अनवस्थायां सत्यां का हानिः। इत्युक्ते स्याद्वाद्याह । अनवस्थानंगीकारेण कृत्वा उभयस्वरूपं समस्तं वस्तु इति तब प्रतिज्ञा विरुद्धयते । यद्य भयस्वभावं नाभ्युपगच्छसि तदा तव प्रतिज्ञाभंगः । (दि० प्र०) 6 संकरः । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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