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________________ ३०० ] अष्टसहस्री [ कारिका १४ क्षेप्तुमशक्यत्वादित्यपरः सोपि न तत्ववित्, सुयुक्त्यतिलङ्घनात् । न हि भावाभावैकान्तयोनिष्पर्यायमङ्गीकरणं युवतं, यथैवास्ति तथैव नास्तीति विप्रतिषेधात् । ततः कथञ्चित्सदसदात्मकं द्रव्यपर्यायनयापेक्षया । द्रव्यनयापेक्षयैव सर्वं सत् पर्यायनयापेक्षयैव च सर्वमसदात्मकं, विपर्यये तथैवासंभवात् । न हि ध्यनयापेक्षया सर्वमसत् संभवति, नापि पर्यायनयापेक्षया सर्वं सत्, प्रतीतिविरोधात् । भावाभावस्वभावरहितं तद्विलक्षणमेव वस्तु युक्तमित्यपि न सारं, सर्वथा जात्यन्तरकल्पनायां वा तदंशनिबन्धनविशेषप्रतिपत्तेरत्यन्ताभावप्रसङ्गात् । न चासावस्ति, सदसदुभयात्मके वस्तुनि स्वरूपादिभिः सत्त्वस्य पररूपादिभिरसत्त्वस्य च तदंशस्य विशेषप्रतिपत्तिनिबन्धनस्य सुनयप्रतीति निश्चितस्य प्रसिद्धेः' दधिगुडचातुर्जातकादिद्रव्योद्भवे पानके तदंशदध्यादिविशेषप्रतिपत्तिवत् । न चैवं जात्यन्तरमेवोभयात्मकमिति युक्तं वक्तुं, जैन-आप भी तत्त्ववित् नहीं हैं, क्योंकि आपका यह कथन सुयुक्ति का उल्लंघन कर जाता है। भाव और अभाव को एकांतरूप से पर्यायरहित स्वीकार करना युक्तियुक्त नहीं है। वस्तु जिस प्रकार से है, उसी प्रकार से नहीं है, इस प्रकार का विरोध है अर्थात् परस्परनिरपेक्ष-भाव और अभावविरुद्ध ही हैं। अतएव द्रव्य और पर्यायनय की अपेक्षा से वस्तु कथञ्चित् सदासदात्मक है। द्रव्याथिकनय की अपेक्षा से ही सभी वस्तु सत्रूप हैं एवं व्यतिरेक विशेष पर्यायाथिकनय की अपेक्षा से ही सभी वस्तु असत्रूप हैं। विपर्य में वैसी व्यवस्था असभव है । अर्थात् द्रव्याथिकनय की अपेक्षा से सभी वस्तु असत्रूप संभव नहीं हैं और पर्यायनय की अपेक्षा से सभी वस्तु सत्रूप भी नहीं हैं क्योंकि प्रतीति में विरोध आता है। शंका-भावाभावस्वभाव से रहित किन्तु उससे विलक्षण ही वस्तु को मानना युक्त है । समाधान-यह कथन भी सारभूत नहीं है । अथवा सर्वथा जात्यंतररूप की कल्पना मानने पर उसके अंश-भावाभावलक्षणरूप कारण विशेष की प्रतिपत्ति होने से अत्यंताभाव का प्रसंग प्राप्त हो जाता है। किन्तु वह अत्यंताभाव तो है नहीं, सत् असत् उभयात्मक वस्तु में स्वरूपादि से सत्त्व और पररूपादि से असत्त्व है और विशेषप्रतिपत्ति के कारणभूत अर्थात् सत्रूप ही अथवा असत्रूप ही उस भावाभाव के अंश की जो कि सुनय की प्रतीति से निश्चित है, ऐसे उसकी प्रसिद्धि है जैसे कि दधि, गुड़, चातुर्जातक (लवंग, तमालपत्र, नागकेशर, एला ये चातुर्जातक हैं। आदि द्रव्यों से बनी हुई ठंढाई में उसके अंश दधि आदिकों की विशेषरूप से भिन्न-२ प्रतिपत्ति होतो हुई देखी जाती है। । सत्त्वासत्त्वयोः। (ब्या० प्र०) 2 क्रमरहितम् । युगपत् । (दि० प्र०) 3 मुलं भावयति । (दि० प्र०) 4 द्रव्यनयापेक्षयव सर्वमसत्पर्यायनयापेक्षयव सर्व सत् इत्युक्तलक्षणे विपर्यये सति तथैव सदसदात्मकरूपेण वस्तु न संभवति यतः । (दि० प्र०) 5 सत्त्वासत्त्वप्रकारेण । (दि० प्र०) 6 सदसत् विकलमेव वस्तु भवतीति कश्चिदवाच्यवादी वदति । (दि० प्र०) 7 भाट्टाह । (दि० प्र०) 8 अत्र बसः । यसः । सदेवासदेव वा। (दि० प्र०) 9 प्रतीतेः । (दि० प्र०) 10 अत्रापि बस: । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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