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________________ अनेकांत की सिद्धि ] प्रथम परिच्छेद [ २६६ लोकनाभावात्तदेकांशवत् सर्वथा परस्परमव्यावृत्तानां ग्राह्यग्राहकसितादिनिर्भासावयवपरमाणुसंवित्तीनामेकपरमाणुस्वरूपतापत्तेः । न चैकपरमाणुः स्थूलतया शवलतया वावलोकयितुं शक्यः, भ्रमप्रसङ्गात् । तथा च सकलचेतनेतरक्षणपरिणामलवविशेषाः' परस्परविविक्तात्मानः सिद्धाः, स्वस्वभावस्य स्वभावान्तरेण मिश्रणाभावात् । तदन्योन्याभावमात्र जगत् । अन्यथा सर्वथैकत्वप्रसङ्गात् तत्रान्वयस्य विशेषापेक्षणादभावो वा, स्वतन्त्रस्य तस्य जातुचिदप्रतिभासनात् । तदिष्टमसदेव कञ्चित् । [ मीमांसकः सर्व वस्तु भावाभावात्मकं मन्यते किन्तु परस्परनिरपेक्षं मन्यते अतस्तदभिमतमपि दोषास्पदमेव ] सर्वथा भावाऽभावोभयात्मकमेव जगदस्तु, तत्र भावस्याभावस्थ च प्रमाण सिद्धत्वात् प्रति अतएव यह जगत् अन्योन्याभावमात्र है अन्यथा यह जगत् सर्वथा एकरूप ही हो जावेगा अथवा व्यावृत्तिमात्र जगत् के स्वीकार करने पर अन्वय-सामान्य भी विशेष को अपेक्षा रखता है, अतएव उस जगत् का अभाव भी हो जावेगा, क्योंकि असत्रूप से निरपेक्ष सत्रूप अन्वय स्वतन्त्ररूप से कदाचित् भी प्रतिभासित नहीं होता है, इसलिए यह इष्ट है कि वस्तु कथञ्चित् असत् ही है। भावार्थ-सांख्य सभी वस्तुओं को सर्वथा सत्रूप ही मानता है किन्तु जैनाचार्यों का कहना है कि यदि सभी वस्तु सत्रूप ही है उनमें 'नास्ति' धर्म नहीं है तब तो जीव और अजीव का भेद समाप्त हो जाता है अतः जीव में अजीव का नास्तित्व और अजीव में जीव का नास्तित्व स्वीकार करना ही पड़ेगा और तब कथञ्चित् अस्ति धर्म के साथ-साथ प्रत्येक वस्तु में कथञ्चित् नास्तिधर्म भी विद्यमान है ऐसा स्वीकार करना पड़ेगा, तब अन्योन्याभाव की मान्यता पुष्ट करनी पड़ेगी, इसलिए प्रत्येक वस्तु कथञ्चित् असत्रूप भी हैं, यह बात सिद्ध हुई है। [ मीमांसक सभी वस्तुओं को भावाभावात्मक मानता है, किन्तु परस्पर निरपेक्ष मानता है, __ अतः उसका अभिमत भी दोषास्पद है ] मीमांसक- सर्वथा भाव-अभावरूप उभयात्मक ही जगत् है और वह भाव एवं अभाव प्रमाण से सिद्ध है, उसका खण्डन करना अशक्य है । 1 मिलितानाम् । (दि० प्र०) 2 विभ्रमेति पा० । (दि० प्र०) मिथ्यात्व । (दि० प्र०) 3 परिणामावलम्ब विशेषा। इति पा० । (दि० प्र०) 4 तत्तस्मात्सर्व चराचरात्मकं जगत् परस्परमभावमात्रं भवति । अन्यथाऽन्योन्याभावमात्राभावे सर्वथैक्यमायाति जगतः । (दि० प्र०) 5 तदंशनिबन्धनम् । (दि० प्र०) 6 द्रव्यस्य पर्यायाश्रयणात् असत्त्वं भवति । कस्माद्रव्यं स्वतन्त्रं कदाचिन्न प्रतिभासते यतः कोर्थः पर्यायरहितं नास्ति । मनुष्यरूपोन्वयः विनश्यत इति विशेषः । (दि० प्र०) 7 अत्राह सर्वथोभयवादी योगादिः सर्व जगत् सर्वथा भावाभावोभयस्वरूपं भवतु को दोषः । (दि० प्र०) 8 लक्षण । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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