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________________ अनेकांत की सिद्धि ] प्रथम परिच्छेद [ २६३ स्यानेकान्तात्मनो वस्तुनः प्रमाणात् साधने सर्वं सदित्यादिवचनेपि, स्यात्सर्वं सदेवेत्यादिसंप्रत्ययोत्पत्तेः । इति प्रपञ्चतोन्यत्र प्ररूपितमवगन्तव्यम् ।। [ बौद्धोऽन्वयरूपमात्मानं न मन्यते, तस्य विचार: ] ननु च जीवादिद्रव्यं सदेव कथञ्चिदित्यसिद्धं, दर्शनावग्रहादिविशेषव्यतिरेकेण 'तस्यानुपलम्भात्, अश्वविषाणवदिति चेन्न, अवग्रहेहादेरन्योन्यं स्वलक्षणविवेकैकान्ते जीवान्तरवत्स्वात्मन्यपि सन्तानभेदप्रसङ्गात् । तथा च यदेव मया विषयविषयिसन्निपातदशायां किञ्चिदित्यालोकितं तदेव वर्ण संस्थानादि सामान्याकारणावगृहीतं पुनः प्रतिनियतविशेषा यद्यपि यहाँ का रिका में 'स्यात्' शब्द नहीं है फिर भी 'कथञ्चित्' शब्द से स्यात् का ग्रहण हो जाता है। ये ‘स्यात्''कथञ्चित्' और 'कथञ्चन' आदि शब्द अनेकान्त को प्रगट करने वाले हैं इनका प्रयोग न करने पर भी जैनीनीति को जानने वाले कुशल वक्तागण प्रत्येक वाक्यों के साथ 'स्यात' का अर्थ ग्रहण कर लेते हैं और नयपद्धति से ही शिष्यों को समझाते हैं। [ बौद्ध आत्मा को अन्वयरूप नहीं मानता है उस पर विचार ] बौद्ध --जीवादि द्रव्य कथञ्चित् सत् ही हैं, यह कथन असिद्ध है क्योंकि दर्शन और अवग्रह आदि विशेष को छोडकर उसकी उपलब्धि नहीं होती है, जैसे कि अश्वविषाण की उपलब्धि नहीं होती है। __जैन-नहीं, क्योंकि अवग्रह एवं ईहादि के अपने-अपने लक्षणों में परस्पर में यदि एकांततया भेद ही स्वीकार करोगे, तब तो जीवांतरवत्-जैसे भिन्न जीव में सन्तानभेद है, वैसे ही अपनी आत्मा में भी उनकी अन्वयरूप सन्तान के भेद का प्रसंग प्राप्त हो जावेगा। पुनः उस प्रकार से मुझ दर्शन ने जिस वस्तु को विषय और विषयी की सन्निपात दशा में “यह है" इस प्रकार से आलोकित किया। उसी वस्तु को वर्ण एवं संस्थान आदि सामान्याकार से अवग्रह के द्वारा जाना, पुन: प्रतिनियत विशेषाकार से ईहाझान ने विषय किया, तथा उन कांक्षित विशेषाकार से अवायज्ञान ने उसी का निश्चय किया, पश्चात् कालान्तर में स्मृति के हेतु स्वरूप धारणाज्ञान ने उसी को अवधारित किया और स्मतिज्ञान ने कालान्तर में "तत्" इस आकार से उसी का स्मरण किया, पुन 'यह वही है' इस आकार से प्रत्यभिज्ञान ने उसी को जाना, अनन्तर तर्क ने "जो इस प्रकार से कार्य को करने वाली वस्तु होती है वह सर्वत्र सर्वदा इसी प्रकार की होती है" इसरूप से उसे तकित किया, पश्चात् अनुमान ने उसके कार्य का अवलोकन करने से उसे अपना विषय बनाया, ततः श्रुतज्ञान ने उसी को शब्दयोजना एवं विकल्पनिरूपणा से अपने और पर के 1 जीवादिद्रव्यस्यादर्शनात् । यथाऽश्वविषाणस्य दर्शनं नास्ति । (दि० प्र०) 2 स्वरूप । (ब्या० प्र०) 3 रूपादिः । (ब्या० प्र०) 4 दीर्घत्वादि । (ब्या० प्र०) 5 यसः । (ब्या० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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