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________________ अष्टसहस्री [ कारिका १४ २६४ ] कारेणेहितं तदेवाकाङ्क्षितविशेषाकारेणावेतं पुनः कालान्तरस्मृतिहेतुतयावधारितं तदेव कालान्तरे तदित्याकारेण स्मृतं पुनस्तदेवेदमित्याकारेण प्रत्यभिज्ञातं, ततो यदित्थं कार्यकृत्तदित्थं सर्वत्र सर्वदेति तर्कितं', ततस्तत्कार्यावबोधनादभिनिबुद्ध', तदेव च शब्दयोजनया विकल्पनिरूपणया वा परार्थं स्वार्थं वा श्रुतमित्यनुसन्धानप्रत्यय वदह मेक एव दृष्टाऽवगृही - तेहितेत्याद्यनुसन्धानबुद्धिरपि न क्वचिदास्पदं बध्नीयात् । तथाविधवासनाप्रबोधादनुसंधानावबोधप्रसिद्धिरिति चेत्साऽनुसंधानवासना यद्यनुसन्धीयमानदर्शनादिभ्यो " भिन्ना तदा संतानान्तरे दर्शनावग्रहादिष्विव स्वसंतानेपि नानुसंधानबोधमुपजनयेत्, अविशेषात् । तदभिन्ना निमित्त निरूपित किया, अर्थात् शब्दयोजना से परार्थ और विकल्पयोजना से स्वार्थ को श्रुतज्ञान ने विषय किया । इस प्रकार से अनुसंधानप्रत्यय के समान में एक दृष्टा, अवगृहीता, ईहिता आदिरूप से हूँ, इस प्रकार की अनुसंधान बुद्धि भी क्वचित् - दर्शन अवग्रह आदिकों में स्थान नहीं पा सकेगी । भावार्थ - बौद्धों ने बुद्धि के सम्पूर्ण क्षणों के साथ अन्वयसम्बन्ध रखने वाली किसी एक वस्तु — आत्मा को स्वीकार नहीं किया है, उस पर जैनों का यह आक्षेप है कि जब आप बुद्धिक्षणपरम्परा को ही आत्मा मानते हैं, तब उनकी यह सन्तानपरम्परा भी कैसे चल सकेगी ? क्योंकि आप क्षणिकवादी हैं । अतः जिस बुद्धिक्षण- निविकल्प - दर्शन ने जिस पदार्थ को पहले सामान्याकार जाना, वह पदार्थ एवं वह ज्ञान उसीसमय विनष्ट हो गया । अब इस ज्ञान की सन्तान परम्परायें अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा आदिरूप से कैसे चलेंगी ? उन्हें कैसे यह भान होगा कि जिसे दर्शन ने पहले "कुछ है" रूप से जाना उसे ही मैं अवग्रह, वर्ण संस्थानादिरूप से अवग्रहीत कर रहा हूँ क्योंकि उत्पन्न होते ही तो वह ज्ञान नष्ट हो गया, पुनः जिसे अवग्रह ने विषय किया है, उसे ही प्रतिनियत विशेषाकार से जानने की मैं चेष्टा कर रहा हूँ इत्यादि ज्ञान भी कैसे होगा ? मतलब यह है कि अनुमान एवं श्रुतज्ञानपर्यन्त परम्परा भी कैसे चल सकेगी ? अतएव जिसमें ये ज्ञानपरम्परायें अन्वयरूप से पाई जाती हैं वह जीवद्रव्य कथञ्चित् नित्य है ऐसा स्वीकार करना चाहिये । बौद्ध- - उसप्रकार की वासना के प्रबोध से अनुसंधान का ज्ञान हो जावेगा अर्थात् पूर्व-पूर्वज्ञान उत्तर-उत्तर ज्ञानक्षणों को ही उत्पन्न करके नष्ट होता रहता है । वर्तमानज्ञान की तरह एकज्ञान 1 प्रतिनियतविषयाकारेणेहितमिति पा० । ( दि० प्र०) धवलदीर्घः । (ब्या० प्र०) 2 कालान्तरे । प्रत्यभिज्ञानम् । ( दि० प्र०) 3 प्रत्यभिज्ञानं यतः । ( ब्या० प्र० ) 4 तर्केण निश्चितम् । ( व्या० प्र० ) 5 ता । ( व्या० प्र० ) 6 इत्यादि प्रत्यभिज्ञानरूपं ज्ञानं भेर्दैकान्ते क्वचिदास्पदं न बध्नाति यथा तदेवेदमित्याकारेण जायमानत्वात्सकलस्य प्रत्यभिज्ञानता । ( ब्या० प्र०) 7 द्रष्टाऽवगृहीता । ईहिता । अवेता । अवधर्त्ता । स्मर्त्ता । प्रत्यभिज्ञाता । तर्किता । इत्याद्यनुसन्धानमतिः क्वचिज्जीवादौ वस्तुनि स्थिति न हन्यात् कोर्थः स्थिति कुर्यादित्यर्थ इत्युक्तं स्याद्वादिना । ( दि० प्र० ) 8 एकत्वाभावे । ( व्या० प्र० ) 9 अनुसन्धानरूप | अवस्थिति: । ( व्या० प्र० ) 10 अवग्रहादि । ( ब्या० प्र० ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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