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________________ २६२ ] [ कारिका १४ नैवाकान्तस्य प्रतिपादनात्सदादिवचनमनर्थकमाशङ्कनीयं', ततः सामान्यतोनेकान्तस्य प्रतिपत्तावपि विशेषार्थिना विशेषस्यानुप्रयोगात्, सामान्यतोपक्रमेपि विशेषार्थिना विशेषोनुप्रयोक्तव्यो, वृक्षो न्यग्रोध इति यथेति वचनात् । द्योतकपक्षे तु न्यायप्राप्तं सदादिवचनं तेनोक्तस्य कथञ्चिच्छब्देन द्योतनात् तेनानुद्योतने' सर्वथैकान्तशङ्काव्यवच्छेदेनाऽनेकान्तप्रतिपत्तेरयोगात्, एवकारावचने विवक्षितार्थाप्रतिपत्तिवत्' । ' नन्वनुक्तोपि कथञ्चिच्छब्दः सामर्थ्यात्प्रतीयते, सर्वत्रैवकारवदिति चेन्न, प्रयोजकस्य' स्याद्वादन्यायाकौशले " प्रतिपाद्यानां " " तदप्रतीतेस्तद्वचनस्य 13 क्वचिदवश्यं 14 भावात् । तत्कौशले" वा तदप्रयोगोभीष्ट एव, सर्व अष्टसहस्री अथवा यदि प्रतिपादक स्याद्वादन्याय में पूर्णतया कुशल है तब तो उस कथञ्चित् शब्द का अप्रयोग अभीष्ट ही है क्योंकि सभी अनेकांतात्मक वस्तु को प्रमाण से सिद्ध करने में "सर्व सत्" इतने मात्र वचन के प्रयोग से भी " स्यात्सर्वं सदेव" कथञ्चित् सभी वस्तु सत्रूप ही हैं इत्यादि पूर्णवाक्य का सम्यक् प्रकार से ज्ञान हो जाता है । इस प्रकार से अन्यत्र -- श्लोकवार्तिकालंकार ग्रन्थ में प्रपञ्चविस्तार से प्ररूपित किया गया है, वहाँ से समझ लेना चाहिये । भावार्थ - एक बार शंकाकार ने कहा कि वस्तु में अनन्त धर्म हैं, अतः सप्तभंगी न होकर अनंतभंगी हो जावेगी, तब आचार्यों ने कहा कि वस्तु के प्रत्येक धर्म में सप्तभंगी प्रक्रिया घटित होती है अतः अनंत धर्मों के निमित्त से अनन्त सप्तभंगी बनती हैं, न कि अनंतभंगी । पुनः शंकाकार पाँचवें, छठे, सातवें भंग को समाप्त करना चाहता था, तब आचार्य ने उनके बारे में भी समाधान कर दिया । पुनः उसने कहा कि अवक्तव्य के समान वक्तव्य को भी एक भंग मानों तब आठ भंग होंगे न कि सप्तभंग | जैनाचार्यों ने कहा कि "अस्ति नास्ति" आदि भंग वक्तव्य ही हैं, न कि अवक्तव्य । अथवा स्यात् वक्तव्य, स्यात् अवक्तव्य, स्यात् उभय, स्यात् अनुभय आदि से अस्ति नास्ति के समान सप्तभंगी घटित हो जाती है । आचार्य इस सप्तभंगी को स्याद्वादामृतगर्भिणी कहते हैं अर्थात् इस सप्तभंगी के उदर में स्याद्वादरूपी अमृत भरा हुआ है । 1 कथञ्चित्सन् । (ब्या० प्र०) 2 सदादिरूपस्य | पश्चात् । (ब्या० प्र० ) 3 ननु न्यग्रोधशब्द एव प्रयोक्तव्यो ननु वृक्ष शब्द इति वचनमन्तव्यम् । वृक्षमात्रमप्यप्रतिपद्यमानं प्रति तत्प्रयोगात् । इति वाचकपक्षे । ( दि० प्र० ) 4 द्योतकपक्षे सदादिवचनमनर्थकं भविष्यतीत्याशंकायामाह । ( दि० प्र०) 5 द्योतनाभावे । (दि० प्र०) 6 कथञ्चिद् सन्नेव | ( ब्या० प्र० ) 7 एव प्रकाराभावे यथा घटोयमित्युक्ते घटप्रतिपत्तिर्यथा न स्यात् । परचतुष्टयसंकीर्णत्वात् । कथञ्चिच्छन्दाभावेऽनेकान्तप्रतिपत्तेरभावात् । एकान्तस्य निराकरणभावात् । ( दि० प्र० ) 8 कश्चिस्वतवर्ती पृच्छति । ( दि० प्र०) 9 वस्तुनोऽनेकान्तरूपत्वात् । गुरोः । नुः । ( दि०प्र०) 10 अनैपुण्ये | ( व्या० प्र० ) 11 शिष्याणाम् । ( दि० प्र०) 12 सति । ( दि० प्र० ) 13 स्याद्वादवचसः । ( दि० प्र०) 14 वाक्ये | ( दि० प्र० ) 15 स्याद्वादन्यायकौशले सति शिष्याणां तस्य स्याच्छन्दस्यानुच्चाराभिमत: । ( दि० प्र० ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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