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________________ अवक्तव्य एकांत का खंडन ] प्रथम परिच्छेद [ २६३ नुमीयेत, 'तद्विकल्पस्याभिलापेनाभिलप्यमानजात्याद्युल्लेखितयोत्पत्त्यन्यथानुपपत्तेः, तदनुमिताच्चाक्षबुद्धयभिलापसंसर्गापाद्यभिलापसंसर्गोनुमीयेत । इति शब्दाद्वैतवादिमतसिद्धिः । न च सौगतो दर्शनस्याभिलापसंसर्गमुपैति । तस्मादयं किञ्चित्पश्यन् तत्सदृशं पूर्व दृष्टं न स्मर्तुमर्हति 'तन्नामविशेषास्मरणात् । तदस्मरन्नैव तदभिधानं प्रतिपद्यते । तदप्रतिपत्तौ तेन तन्न" योजयति । तदयोजयन्नाध्यवस्यतीति न क्वचिद्विकल्पः शब्दो वेत्यविकल्पाभिधानं जगत्स्यात् । ननु च नामसंश्रयस्य विकल्पस्य प्रत्यात्मवेद्यत्वात्13 सर्वेषामभिधानस्य च श्रोत्रबुद्धौ प्रतिभासनात्कथमविकल्पाभिधानं जगदापद्यतेति चेन्न, तत्राप्यध्यवसायासंभवात् । नहीं, कारण कि उपादान में विकल्प का उत्थान नहीं होता। विकल्प का उत्थान तो रूपादि में ही होता है। जैन - उस विकल्प के बल से अथवा उसकी वासना के बल से उत्तरक्षणवर्ती निर्विकल्पज्ञान उपादानरूप पूर्वक्षणवर्ती निर्विकल्पज्ञान को विषय करता है, ऐसा नियम स्वीकार करने पर प्रत्यक्ष बुद्धि-निर्विकल्पज्ञान में अभिलाप-शब्द का संसर्ग भी तद्वत् अनुमित करना पड़ेगा। भावार्थ-बौद्धों ने तो निर्विकल्पदर्शन में शब्द का संसर्ग नहीं माना है, उसका संसर्ग तो केवल उन्होंने सविकल्प प्रत्यक्ष में ही माना है। उनके यहाँ प्रत्यक्ष के दो भेद हैं । १) सविकल्प, (२) निर्विकल्प । सविकल्पप्रत्यक्ष नामजात्यादि शब्दों के संसर्ग से युक्त है, निर्विकल्प प्रत्यक्ष नहीं। इस पर जैनों का यह कथन है कि रूपादिकों का उल्लेख करने वाले विकल्प के बल से यदि निर्विकल्पप्रत्यक्ष में रूपादिकों को विषय करने का नियम किया जावे, तब तो विकल्प में नामजात्यादिरूप शब्द के संसर्ग से रूपादिकों को विषय करने के नियम की तरह निर्विकल्पप्रत्यक्ष में भी शब्द के संसर्ग का अनुमान करना पड़ेगा। नहीं तो विकल्प में शब्द का संसर्ग नहीं मानना चाहिये एवं जब विकल्प में शब्द का संसर्ग है, तब विकल्प के उत्पादक निविकल्पप्रत्यक्ष में भी शब्द का संसर्ग है, यह अनुमित होता है। तब तो निर्विकल्पप्रत्यक्ष में अनुमित अभिलाप के संसर्ग से उसके विषयभूत रूपादिकों में भी अभिलाप शब्द के संसर्ग का अनुमान करना पड़ेगा एवं इस प्रकार से शब्दाद्वैतवाद की सिद्धि हो 1 अक्षबुद्धेनिर्विकल्पकज्ञानस्य रूपादिविषयत्वनियमोस्ति प्रत्यक्षेऽभिलापाभावो विकल्पेपि तन्मास्तु । (ब्या० प्र०) 2 निर्विकल्पकस्य । (ब्या० प्र०) 3 अदोषोयं प्रत्यक्षस्य व्यवसायहेतुत्वादित्यत्र प्रकारान्तरेण दूषणमाहुस्तस्मादयमिति । (दि० प्र०) 4 सौगतः । (दि००) 5 दृश्यमानः । (दि० प्र०) 6 दृष्टं निर्विकल्पकेन । (दि० प्र०) 7 पूर्वदृष्टाभिधानम् । (दि० प्र०) 8 सर्वप्रकारेणापि वस्तुनोऽनुभवस्याभिलापसंसर्गासंभवा तन्नामविशेपास्मरणं स्यादित्याकूतम् । तन्नामविशेषस्मरणं पुनः किं वाऽस्य वाचकं स्यादित्युल्लेखं प्रतिपत्तव्यम् । (दि० प्र०) 9 पूर्वदृष्टस्मरन् । (दि० प्र०) 10 दृश्यमानम् । (दि० प्र०) 11 दृश्यमानम् । (ब्या० प्र०) 12 शब्दायतस्य । (दि. प्र.) 13 प्रत्यक्ष कल्पनापोढं प्रत्यक्षेणैव सिद्धयति । प्रत्यात्मवेद्यः सर्वेषां विकलो नाम संश्रय इत्यभिधानात् । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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