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________________ २६४ ] अष्टसहस्री [ कारिका १३ न च स्वसंवेदनेनेन्द्रियप्रत्यक्षेण वा निर्विकल्पकेन विकल्पोभिधानं वा गृहीतं नाम, अतिप्रसङ्गात् । तथा हि । 'बहिरन्तर्वा गृहीतमप्यगृहीतकल्पं 'क्षणक्षयस्वलक्षण' संवेदनादिवत् । तथा चायातमचेतनत्वं' जगतः ' 1 10 जावेगी किन्तु आप बौद्धों ने तो निर्विकल्पदर्शन में शब्दों का संसर्ग माना ही नहीं है और जब दर्शन शब्द के संसर्ग से रिक्त है, तो इस प्रकार की मान्यता में क्या दोष आता है ? वह बताते हैं तब तो यह बौद्ध किंचित् नीलादिकवस्तु को देखते हुये पूर्व में देखी गई उसके सदृशवस्तु का स्मरण नहीं कर सकता है, क्योंकि उसका नामविशेष स्मरण नहीं है और जब उस पदार्थ की उसे स्मृति नहीं होगी, तब उसका नाम क्या है ? यह भी वह नहीं जान सकेगा और अज्ञान अवस्था में अभिधान - नाम के साथ पदार्थ की योजना नहीं हो सकेगी और योजना के न होने पर किसी का इसे अध्यवसाय - निश्चय भी नहीं होगा । इस प्रकार किसी भी पदार्थ में न तो किसी भी तरह का विकल्प जागृत होगा और न किसी भी तरह के शब्द का संसर्ग हो सिद्ध होगा । अतः जगत् को विकल्प और शब्द से रहित मानने का प्रसंग प्राप्त हो जावेगा । सौगत—नाम संश्रय और विकल्प तो प्रत्येक आत्मा को अनुभव में आ रहा है और शब्द तो सभी मनुष्यों को श्रोत्रेन्द्रियज्ञान में प्रतिभासित हो रहा है, तब पुनः विकल्प और शब्द से रहित यह जगत् कैसे हो सकता है ? जैन - ऐसा नहीं कहना क्योंकि उन विकल्प और शब्द का भी अध्यवसाय - निश्चय असंभव है क्योंकि स्वसंवेदन प्रत्यक्ष अथवा निर्विकल्पइंद्रियप्रत्यक्ष के द्वारा विकल्प अथवा शब्द ग्रहण नहीं किये सकते अन्यथा अतिप्रसंग दोष आ जावेगा । अर्थात् निर्विकल्प के द्वारा सविकल्प का ग्रहण मानने पर तो उसी निर्विकल्प के द्वारा ही स्थिर, स्थूल, साधारण आकार का ग्रहण पूर्व में हो हो जावे, क्या बाधा है ? यह अतिप्रसंग आता है । तथाहि - निर्विकल्प प्रत्यक्ष के द्वारा विषय किये गये बहिरंग अथवा अंतरंग पदार्थ भी अविषय किये हुये के सदृश ही रहेंगे, जैसे कि एक क्षणवर्तीवस्तु को जानने वाला ज्ञान न जानने के सदृश ही है । पुनः विकल्प और शब्द असंभव होने से गृहीतवस्तु भी अगृहीतसदृश हो जाने से यह जगत् अचेतनस्वरूप ही हो जाता है । 1 विकल्पोऽभिधानं वा तद्गृहीतं माभूदपितु निर्विकल्पकस्य केन प्रत्यक्षेण गृहीतं स्यादित्याशंकायामाहुः न चेदित्यादि । ( दि० प्र० ) 2 निर्विकल्पकेन । (दि० प्र०) 3 स्थिरस्थूलसाधारणं रूपम् । (ब्या० प्र०) 4 बहिस्तत्त्वं नीलादिकमन्तस्तत्त्वं सुखादिकम् । ( दि० प्र० ) 5 शब्द: । ( व्या० प्र० ) 6 अध्यवसायासंभवत्वादिति हेतुः । ( दि० प्र०) 7 क्षणक्षयस्वलक्षणार्थम् । ( दि० प्र० ) 8 क्षणक्षयस्वलक्षणसंवेदनं यथाऽगृहीतकल्पमुत्तरकाले क्षणक्षयस्वलक्षणविषयत्वेन विकल्पातीते । ( दि० प्र०) 9 निर्विकल्पकेन गृहीतस्याप्यगृहीतकल्पत्वात् । ( दि० प्र० ) रहितत्वम् । (दि० प्र०) परिज्ञानाभावात् । ( ब्या० प्र० ) 10 ज्ञान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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