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________________ २६२ ] अष्टसहस्री [ कारिका १३ प्रभवात्ततस्ताह' कथमक्षबुद्धे : रूपादिविषयत्वनियमः सिध्द्येत् ? मनोराज्यादिविकल्पादपि 2 तत्सिद्धिप्रसङ्गात् । अथा बुद्धिसहकारिणो वासनाविशेषादुत्पन्नाद्रूपादिविकल्पादक्षबुद्धे रूपादिविषयत्वनियमः कथ्यते । तत एवाक्षबुद्धिविषयत्वनियमोप्यभिधीयताम् । अन्यथा रूपादिविषयत्वनियमोपमा' भूदविशेषात् । बौद्धो निर्विकल्पदर्शनं शब्दसंसर्ग रहितं मन्यते तस्य विचारः क्रियते ] रूपाद्युल्लेखित्वाद्विकल्पस्य तबलात् तदभ्युपगमे वा प्रत्यक्षबुद्धेरभिलापसंसर्गोपि तद्वद व्यापार कर सके अतः क्षणिक निर्विकल्प प्रत्यक्ष से विकल्प को उत्पन्न हुआ मानने पर वह कथमपि नाम जात्यादि से विशिष्ट वस्तु का व्यवसायात्मक निश्चय करने वाला नहीं हो सकता है । और यदि विकल्प की उत्पत्ति केवल निर्विकल्प प्रत्यक्ष से न मानकर शब्दार्थ की विकल्पवासना से मानने में आवे तो यह पक्ष भी निर्दोष नहीं है, क्योंकि इस मान्यता में निर्विकल्पप्रत्यक्ष में रूपादि को विषय करने का नियम सिद्ध नहीं होता है । तात्पर्य यह है कि निर्विकल्पप्रत्यक्ष जिसमें विकल्प को उत्पन्न करता है वही उसका विषय होता है । आपका यह नियम ध्वस्त हो जाता है, क्योंकि यहाँ तो आपने निर्विकल्प प्रत्यक्ष से विकल्परूप अध्यवसाय की उत्पत्ति न मानकर शब्दार्थ विकल्पवासना से मानी है । बौद्ध - निर्विकल्पज्ञान है सहकारी कारण जिसमें ऐसी वासना विशेष से उत्पन्न हुआ जो रूपादि विकल्प है, उससे प्रत्यक्षज्ञान में रूपादिक को विषय करने का नियम सिद्ध हो जावेगा । जैन- - तब तो उसी हेतु से निर्विकल्पज्ञान को विषय करने का नियम भी स्वीकार कर लेना चाहिये । अर्थात् उत्तरक्षण का निर्विकल्पप्रत्यक्ष अपने उपादानरूप पूर्वक्षण के निर्विकल्पज्ञान को विषय करता है, ऐसा मान लेना चाहिये, परन्तु आप तो ऐसा मान नहीं सकते हैं, क्योंकि इस मान्यता में क्षणिकवाद का निषेध हो जावेगा । आप तो कहते हैं कि उपादानरूप निर्विकल्पज्ञान अपने कार्यरूप उत्तर के निर्विकल्पज्ञान को उत्पन्न कर विनष्ट हो जाता है और इसी के ऊपर यह आक्षेप है कि जब निर्विकल्पज्ञान से सहकृत, वासना, विशेष से उत्पन्न हुये रूपादिविकल्प से निर्विकल्पज्ञान में रूपादि को विषय करने का नियम माना जावेगा, तब तो इसी से यह भी मान लेना चाहिये कि जिस निर्विकल्प बुद्धि से वह वासना विशेष सहकृत हुआ है, वह उपादानरूप पूर्व निर्विकल्पज्ञान भी उस उत्तरक्षण केनिर्विकल्पज्ञान का विषय होना चाहिये और यदि ऐसी बात मान्य नहीं है, तब तो रूपादि को विषय करने का नियम भी उत्तरक्षण निर्विकल्पबुद्धि में कैसे बन सकता है ? क्योंकि दोनों ही समान हैं । [ बौद्धों ने निर्विकल्पदर्शन को शब्द के संसर्ग से रहित माना है इस पर विचार ] सौगत - विकल्प रूपादिकों का ही उल्लेखी होता है निर्विकल्पज्ञान के उपादान का नहीं । अर्थात् अक्षबुद्धि ( निर्विकल्पज्ञान) रूपादिकों को ही विषय करने के नियम वाला है, अपने उपादान को 1 अविकल्पकादर्थाद्विकल्पात्मनः प्रत्यक्षस्योत्पत्तिरस्थितिः । ( दि० प्र० ) 2 बस । ( दि० प्र० ) 3 न तु मनोराज्यादि विकल्पाद्वासनोत्पन्नत्वात् । ( दि० प्र०) 4 उपादानभूतः । बसः । (ब्या० प्र० ) 5 विकल्पात् | ( ब्या० प्र० ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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