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________________ अवक्तव्य एकांत का खंडन ] प्रथम परिच्छेद [ २५७ रुत्पत्तिः, अपि तु चक्षुरादिशक्तेश्च । विषयाकारानुकरणाद्दर्शनस्य तत्र' विषयः प्रतिभासते, न पुनः करणं', 'तदाकाराननुकरणादिति चेतहि तदर्थवत्करणमनुकर्तुमर्हति, न' चार्थ, विशेषाभावात् । दर्शनस्य कारणान्तरसद्भावेपि10 विषयाकारानुकारित्वमेव सुतस्येव पित्राकारानुकरणमित्यपि वात, 'स्वोपादानमात्रानुकरणप्रसङ्गात्।। 1 विषयस्यालम्बनप्रत्ययतया स्वोपादानस्य च समनन्तरप्रत्ययतया प्रत्यासत्तिविशेषाद्दर्शनस्य उभयाकारानुकरणेप्यनुज्ञायमाने रूपादिवदुपादानस्यापि विषयतापत्तिः, अतिशयाभावात्, वर्णादेर्वा तद्वदविषय जैन-तब तो उस अर्थ के समान उन इन्द्रियों को भी अनुकरण करना उचित ही है न कि अर्थ को ही अनुकरण करना उचित है, क्योंकि दोनों में किसी प्रकार की विशेषता अर्थात् अंतर नहीं है। बौद्ध- दर्शन में कारणान्तर का सद्भाव होने पर भी विषय के आकार का अनुकरणपना ही है, जैसे कि पुत्र पिता का ही अनुकरण करता है । जैन-यह भी कथनमात्र ही है, क्योंकि अपने उपादानमात्र के अनुकरण का प्रसङ्ग प्राप्त हो जावेगा। (विषय आधार है और ज्ञान आधेय है) विषय में आलम्बन प्रत्यय होने से और अपने उपादान में समनन्तर प्रत्यय के होने से प्रत्यासत्तिविशेष पाई जाती है । अत: दर्शन में उभयाकार का अनुकरण भी स्वीकार कर लेने पर रूपादि के समान उपादान-निर्विकल्प में भी विषयपने की आपत्ति आ जावेगी, क्योंकि अतिशय - विशेषता का अभाव है। अन्यथा वर्णादिक में भी उपादान के समान अविषयपने का प्रसङ्ग आ जावेगा। भावार्थ-बौद्धों का ऐसा कहना है कि "नाकारणं विषयः" अकारण विषय नहीं होता है और . स्वलक्षण निर्विकल्प प्रत्यक्ष का विषय है, अतः यह उसका कारण है और अक्षज्ञान यद्यपि इन्द्रियों से उत्पन्न होता है फिर भी वह उनका ज्ञाता नहीं होता है, क्योंकि तदुत्पत्ति के साथ तदाकारता भी चाहिये, यह तदाकारता इन्द्रियजन्य अक्षज्ञान में नहीं है। इसलिये अक्षज्ञान इन्द्रियाकार नहीं होता है। इस पर जैनाचार्यों का कथन है कि जब यह नियम है कि "नाकारणं विषयः" तब अक्षज्ञान में विषय की तरह इन्द्रियों का प्रतिभास क्यों नहीं होता ? क्योंकि जैसे वह निर्विकल्प प्रत्यक्ष-अक्षज्ञान विषयभूत पदार्थों का अनुकरण कर पदार्थाकार होता है, वैसे ही उसे इन्द्रियाकार भी होना 1 स्वीकरणात् । (दि० प्र०) 2 दर्शने । (दि० प्र०) 3 इन्द्रियम् । (ब्या० प्र०) 4 करणमनुकतु नार्हति वा । करणम् । (दि० प्र०) 5 स्या० हे सौगत ! तदा तद्दर्शन यथार्थमनुकरोति । तथेन्द्रियमनुकतु योग्यं भवति । यदि करणं नानुकरोति तदार्थञ्च मा तु कुरुतामुभयत्रकारणत्वेन विशेषाभावात् । (दि० प्र०) 6 ज्ञानम् । (ब्या० प्र०) 7 करणमनुकतु नार्हति वा । (व्या० प्र०) 8 अर्थमपि अनुकर्तुमर्हति न विशेषाभावात् । (ब्या० प्र०) 9 प्रत्यक्षस्य । (ब्या० प्र०) 10 चक्षरादि दृष्टान्तेऽन्नादि । (ब्या० प्र०) 11 पूर्वज्ञानम् । (ब्या० प्र०) 12 उपादानकारणाकारस्वीकारास्तुतथाङ्गीकारे पूर्वक्षणं ज्ञानमुत्तरक्षणज्ञानस्योपादानकारणं भवति तदाकारधारकं भवति इत्यनिष्टापादनम् । (ब्या० प्र०) 13 ननु । (ब्या० प्र०) 14 संबन्धः । (ब्या० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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