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________________ २५६ ] अष्टसहस्री [ कारिका १३ नैवास्ति । ततस्तत्र प्रतिभासमानेपि न प्रतिभासेत । शक्यं हि वक्तुं 'यो यत्राधेयतया' नास्ति तदात्मा वा न भवति स तस्मिन् प्रतिभासमानेपि न प्रतिभासते यथाक्षविषये स्वलक्षणे शब्दः । नास्ति चाक्षज्ञाने' तथाक्षविषयस्तदात्मा वा न भवति, इति । [ बौद्धस्य निर्विकल्पज्ञानं पदार्थेभ्य उत्पद्य तानेव पदार्थान् जानाति तर्हि तज्ज्ञानमिन्द्रियेभ्योपि उत्पद्यते तानीन्द्रियाणि कथं न जानीते ? ] यदि ' ' पुनर्विषयसामर्थ्यादक्षज्ञानस्योत्पादात्तत्र प्रतिभासमाने स प्रतिभासत एवेति मतं तदप्यसम्यक्, करणशक्तेरपि प्रतिभासप्रसङ्गात् । तथा हि । न केवलं विषयबलाद्दृष्टे - है । हम ऐसा कह सकते हैं कि जो जहाँ पर आधेयरूप से नहीं हैं अथवा वह तदात्मक भी नहीं है, अतएव वह उसमें प्रतिभासित होने पर भी प्रतिभासित नहीं होता है, जैसे कि अक्ष के विषयभूत स्वलक्षण में शब्द अथवा ज्ञान के प्रतिभासमान होने पर भी अर्थ धर्मी स्वयं प्रकाशित नहीं होता है, क्योंकि वह तदाधेयरूप नहीं है अथवा तदात्मक धर्मरूप नहीं है और अक्षज्ञान में उस प्रकार आधेयरूप से अक्षविषय नहीं है अथवा वह ज्ञान तदात्मक भी नहीं है । [ बौद्ध का निर्विकल्पज्ञान पदार्थों से उत्पन्न होकर ही उन पदार्थों को जानता है, तब वह ज्ञान इन्द्रियों से भी उत्पन्न होता है, पुनः इन्द्रियों को क्यों नहीं जानता ? ] उत्पाद होने से उसमें प्रतिभासमान होने पर वह - बौद्ध - विषय की सामर्थ्य से अक्षज्ञान का स्वलक्षणभूत - अर्थ प्रतिभासित होता ही है । जन- यह कथन भी असमीचीन ही है, क्योंकि इन्द्रियों की शक्ति के भी प्रतिभासित होने का प्रसंग प्राप्त हो जावेगा । तथाहि - केवल विषय के बल से ही दर्शन की उत्पत्ति नहीं होती है, अपितु चक्षुआदि शक्ति के सानिध्य से हो दर्शन की उत्पत्ति होती है। (और पुनः विषय के समान चक्षुआदि शक्ति का भी प्रतिभास हो जावेगा, क्योंकि इस प्रकार से विषयज्ञान का उत्पाद होने से, यह हेतु अनकांतिक हो जाता है, ऐसा समझना चाहिये । ) बौद्ध - दर्शन विषयाकार का अनुकरण करता है, अतएव उसमें विषय प्रतिभासित होते हैं, न पुनः इन्द्रियाँ । क्योंकि वे विषयाकार का अनुकरण नहीं करती हैं । 1 स्या० सौगतं प्रति अनुमानमाह । अर्थस्वलक्षणं पक्षोऽक्षज्ञाने प्रतिभासमानेपि तद्विषयस्तदात्मा वा न भवतीति साध्यो धर्मः तदाधारतया तदात्मकतयाऽविद्यमानत्त्वात् । यो यत्राध्येयता इत्यादि व्याप्तिः । ( दि० प्र०) 2 स्वलक्षणं पक्षोऽक्षज्ञानेन प्रतिभासत इति तदाधेयतया तदात्मकतया वा भावात् । ( दि० प्र० ) 3 ननु विषयिणि विषयस्याऽधाराधेयभावतादात्म्यसम्भवान्न ज्ञेयत्वं प्रवदामः किं तर्युत्पाद्योत्पादकभावादिति परमाशंकते । ( ब्या० प्र० ) 4 सौ० निर्विकल्पकदर्शनं स्वलक्षणरूपविषय सामर्थ्यादुत्पद्यतेऽतस्तत्र निर्विकल्पकदर्शने प्रतिभासमानेपि सोऽर्थः प्रतिभासत इत्यभिप्रायः । (दि० प्र० ) 5 चक्षुरादीन्द्रियसामर्थ्यात् । ( दि० प्र० ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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