SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 324
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उभयकांत का खंडन । प्रथम परिच्छेद [ २५५ वचनेपि विरोधाभावात् परप्रतिपादनस्यान्यथानुपपत्तेः । इति कस्यचिद्वचनं तदप्यसत् यदसतः समुदाहृतम् । सिद्धसाध्यव्यवस्था हि कथामार्गाः । न च स्वलक्षणस्य सर्वथाप्यनिर्देश्यत्वोपगमे 'स्वलक्षणमनिर्देश्यम्' इति वचनेन तस्य' निर्देश्यत्वमविरुद्धम् । अथ स्वलक्षणं नैतद्वचनेनापि निर्देश्यं स्वलक्षणसामान्यस्यैव तेन निर्देश्यत्वात् स्वलक्षणे निर्देशासंभवात्, न ह्यर्थे शब्दाः सन्ति तदात्मानो वा येन तस्मिन् प्रतिभासमाने तेपि प्रतिभासेरन्निति वचनात् । कल्पनारोपितं तु स्वलक्षणं तद्धर्मो वा निर्देश्यत्वशब्देन निदिश्यते, विरोधाभावादिति मतं तहि 'स्वलक्षणमज्ञेयमपि स्यात् । यथैवाक्षविषयेभिधानं नास्ति तथालज्ञाने विषयोपि और पर को प्रतिपादन करने की तो अन्यथानुपपत्ति है। अर्थात् 'तत्त्व अवाच्य है', पर को समझाने के लिये ऐसे वचनों का प्रयोग किया हो जाता है। जैन-'यह कथन भी असत्रूप ही है क्योंकि तुमने असत्-अविद्यमान ही दोनों को उदाहरण में रखा है।' क्योंकि सिद्ध है साध्य की व्यवस्था जिसमें ऐसा ही कथामार्ग--दृष्टांतक्रम होता है । अर्थात जो वादी और प्रतिवादी दोनों को मान्य है, वही दष्टांत होता है। प्रथमानयोग की जो कथायें वादी प्रतिवादी दोनों ही को मान्य हैं, वे ही उदाहरण की कोटि में रखी जाती हैं, ऐसा व्यवहार है तथैव जो बात उभयमान्य होती है, उसे ही दृष्टांत में रखना चाहिये। ___ यदि स्वलक्षण को सर्वथा ही अनिर्देश्य स्वीकार किया जावे तब तो "स्वलक्षणमनिर्देश्य" इस कथन के द्वारा भी निर्देश करना अविरुद्ध नहीं होगा। बौद्ध-"स्वलक्षणं" इस वचन के द्वारा भी स्वलक्षण निर्देश्य नहीं है, किन्तु स्वलक्षण-सामान्य अन्यापोहलक्षण ही उस शब्द के द्वारा कहा जाता है, क्योंकि स्वलक्षण का तो निर्देश करना ही असंभव है, कारण कि अर्थ में आधेयरूप से तो शब्द है नहीं अथवा अर्थ शब्दात्मक भी नहीं है कि जिससे उस अर्थ के प्रतिभासित होने पर वे शब्द भी प्रतिभासित हो सकें। ऐसा कथन हमारे यहाँ पाया जाता है कि कल्पनारोपित जो स्वलक्षण-अन्यापोहलक्षण है अथवा उसका निर्देश्यत्व धर्म भी कल्पनारोपित है, जो कि निर्देश्यत्वशब्द से निर्दिष्ट किया जाता है, अत: इसमें किसी प्रकार का भी विरोध नहीं है। जैन-तब तो आपका स्वलक्षण अज्ञेय-शून्यरूप भी हो गया । जिस प्रकार से अक्षविषयकस्वलक्षण में अभिधान-शब्द नहीं है उसी प्रकार से अक्षज्ञान - निर्विकल्प प्रत्यक्ष में विषयरूप स्वलक्षण भी नहीं है । अतएव उस अक्षज्ञान में प्रतिभासित होने पर भी वह विषय प्रतिभासित नहीं होता सौगतस्य दिग्नागादेः । (ब्या० प्र०) 2 दृष्टान्तीकरणम् । दृष्टान्तीकृतम् । (दि० प्र०) 3 स्वलक्षणस्य । (दि० प्र०) 4 स्वलक्षणमनिर्देश्यमिति वचनेनान्यापोहस्य निर्देश्यत्वात् । दि० प्र०) 5 क्षणिकेऽर्थे । (व्या० प्र०) 6 सौगतः । अनिर्देश्यमित्युदाहरणम् । (दि० प्र०) 7 स्याद्वादी । (दि० प्र०) 8 चक्षुरिन्द्रयम् । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy