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________________ २५४ ] अष्टसहस्री [ कारिका १२ अवाच्यतैकान्तेप्युक्ति वाच्यमिति युज्यते ॥१३॥ योपि पक्षत्रयोपक्षिप्तदोषजिहासया सर्वथाऽवक्तव्यं तत्वमवलम्बेत् सोपि कथमवक्तव्यं ब्रूयात्, येनावाच्यतैकान्तेप्यवाच्यमित्युक्तियुज्यते । तदयुक्तौ कथं परमवबोधयेत् ? स्वसंविदा' 'परावबोधनायोगात्। तदनवबोधने' कथं परीक्षितास्य स्यात् ? तस्यापरीक्षकत्वे च कुतोन्यस्माद्विशेषः सिध्येत् ? अपरीक्षिततत्त्वाभ्युपगमस्य सर्वेषां निरंकुशत्वात् । __ [ बौद्धः स्वतत्त्वमवाच्यं साधयितुमनेका युक्तीः प्रयुङ्क्ते जैनाचार्यास्ता: निराकुर्वति । ] नैष दोषः' 1 स्वलक्षणमनिर्देश्य प्रत्यक्षं कल्पनापोढमित्यादिवत्सर्वमवाच्यं तत्त्वमिति कारिकार्थ-यदि कोई एकांत से तत्त्व को अवाच्य-अवक्तव्य ही कहें, तब तो "तत्त्व अवाच्य है" यह कथन भी नहीं बन सकेगा ॥१३॥ जो बौद्ध भी तीनों पक्षों-भावैकांत, अभावैकांत, उभयकांतरूप पक्षों में दिये गये दोषों को दूर करने को इच्छा से यदि सर्वथा अवक्तव्यत्त्व का अवलंबन लेवे पुनः 'तत्त्व अवक्तव्य हैं ऐसा भी वह कैसे बोल सकेगा? जिससे कि एकांत से अवाच्यता स्वीकार करने पर भी “अवाच्य" यह कथन युक्त हो सके और "अवाच्य" इस कथन की अयुक्ति हो जाने से वह दूसरों को अपना तत्त्व समझायेंगे भी कैसे ? क्योंकि स्वसंवेदन के द्वारा पर को समझाना शक्य ही नहीं है। तथा अपने तत्त्व को दूसरों को भी समझाये बिना इस बौद्ध का कथन भी कैसे परीक्षित हो सकेगा? उस कथन की परीक्षा न हो सकने से अन्य जनों से भी विशेषता-अन्तर कैसे सिद्ध हो सकेगा? और अपरोक्षिततत्त्व को भी स्वीकार कर लेने पर तो सभी का मत निरंकुश हो जावेगा अर्थात् किसी के मत का निराकरण करना ही शक्य नहीं हो सकेगा। [ बौद्ध अपने तत्त्व को अवाच्य सिद्ध करने के लिये अनेक युक्तियों का प्रयोग करता है ___ और जैनाचार्य उन युक्तियों का खण्डन करते हैं। ] बौद्ध-यह कोई दोष नहीं है, "जो स्वलक्षण है, वह अनिर्देश्य है एवं प्रत्यक्ष कल्पना से रहित है" इत्यादि वाक्यों के समान सभी "तत्त्व अवाच्य ही हैं" ऐसा कथन करने पर भी विरोध नहीं आता है. क्योंकि "अवाच्य" इस प्रकार के वचन के बिना पर को प्रतिपा 1 तस्याअवाच्यमित्युक्तेरयुक्तौ सत्यां परं स्वमतवत्तिनं शिष्यादिकं कथं प्रतिवोधयेदपितुन । (दि० प्र०) 2 प्रतिवाद्यादिकम् । शिष्यादिकम् । (दि० प्र०) 3 प्रतिपादयेत् । आशंक्य । (दि० प्र०) 4 स्वार्थानुमानेन । (दि० प्र०) 5 स्वसंविदावबोधयामीति चेन्न । (दि० प्र०) 6 प्रतिपादनम् । (दि० प्र०) 7 पराभ्युपगतं तत्त्वं युक्त्या न व्यवतिष्ठते स्वाभ्युपगतमेव व्यवतिष्ठत इति प्रतिवाद्यादि प्रतिबोधनाभावे। (दि० प्र०) 8 अवाच्यवाद्याह । (दि० प्र०) 9 वचनाभावकृतः । (ब्या० प्र०) 10 तस्यानन्तत्वात् संकेताविषयत्वादनन्वयाच्छब्दव्यवहारायोग्यत्वाच्च । (ब्या० प्र०) 11 शब्देनाप्रतिपाद्यम् । (ब्या० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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