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________________ प्रथम परिच्छेद उभयकांत का खंडन ] [ २५३ तथा' स्वयमनभ्युपगच्छतोपि कथञ्चिदुभयात्मकतत्त्ववादप्रवेशे कथमन्धसर्पबिलप्रवेशन्यायानुसरणं न स्यात् ? यदृच्छया' तदवलम्बनात् । ततो नैवमप्युभयकान्तः सिध्यति, विरोधात् । तिरोभाव सिद्ध है एवं अव्यक्तात्मना-प्रधानात्मकरूप से उसका अस्तित्व-आविर्भाव व्यवस्थित है। कहा भी है श्लोकार्थ-जो हेतुमान्-कार्य है अनित्य, अव्यापी, क्रिया सहित, अनेक एवं आश्रित है, लिङ्ग-कारण है, अवयव सहित एवं परतन्त्र है वह व्यक्त-महदादिस्वरूप है तथा उससे विपरीत अव्यक्त-प्रधान है। अर्थात् जो कार्य, कारणरूप से रहित नित्य, सर्वव्यापी, निष्क्रिय, एक, अवयवरहित, स्वतन्त्र है एवं किसी के आश्रित नहीं है वह अव्यक्त प्रधान कहलाता है। सांख्यपरमार्थ से तो व्यक्त और अव्यक्त एक ही हैं अतः हम सांख्य स्याद्वाद का अवलम्बन नहीं करते हैं। जैन-नहीं, वह नित्य और अनित्य का विरोध तो तथैव अवस्थित है। प्रधानाद्वैत के स्वीकार करने पर तो उभयकाम्य स्वीकृत हो नहीं सकता है। अर्थात् प्रधानात्मक से वह नित्य है और महदादि की अपेक्षा से अनित्य है यह स्वीकृति तो स्याद्वाद को आश्रय दे देती है। इसमें प्रधानाद्वैत सिद्ध नहीं हो सकता है, और प्रधानरूप से नित्य तथा महान् आदिरूप से अनित्य कहने पर तो स्याद्वाद आ जाता है । स्याद्वाद को स्वयं स्वीकार न करते हुये भी कथञ्चित्रूप से उभयात्मक तत्त्ववादरूप स्याद्वाद में प्रवेश करने पर 'अंधसर्पबिलप्रवेशन्याय' का अनुसरण क्यों प्रत्यूत यदच्छा से-इच्छानुसार उसका अवलम्बन होगा ही होगा। इसीलिये इस प्रकार से भी उभयकांत की सिद्धि नहीं हो सकती है, क्योंकि विरोध आता है। सत् असत् उभयेकात्म्य के खण्डन का सारांश सभी वस्तुओं को सत् और असत्रूप से स्वीकार करने वाले भाट्ट के वचन भी विरुद्ध हैं क्योंकि स्वरूप के समान वस्तु यदि पररूप से भी अस्तिरूप है तथैव पररूप के समान ही स्वरूप से भी नास्तिरूप होवे, ऐसा शक्य नहीं एवं दोनों के मानने पर तो भाव-अभाव में प्रविष्ट हो जाता है और अभाव सर्वथाभाव में प्रविष्ट हो जावेगा पुनः एक के अभाव में दूसरे का अभाव भो निश्चित है। सांख्य भी कहते हैं कि महदादिरूप से त्रैलोक्य का तिरोभाव सिद्ध है एवं प्रधानात्मकरूप से उसका आविर्भाव सिद्ध है ऐसा कहते हुये सांख्य भी 'अंधसर्पबिलप्रवेशन्याय' से स्याद्वाद का ही अनुसरण करते हैं, अतः उभयकात्म्य भी श्रेयस्कर नहीं है सभी वस्तु कथञ्चित् जात्यंतररूप से ही भावाभावात्मक हैं। 1 तर्हि दूषणमाह। (दि० प्र०) 2 सांख्यमते उभयात्मकत्वप्रतिपादकप्रक्रियासद्भावादेवं वचनम् । (दि० प्र०) 3 कुतः यदानु सर्वथोभयकात्म्यांगीकारे कृते युक्तिर्नावतरति तदा स्वेच्छया तव तस्य स्याद्वादस (दि० प्र०) 4 सांख्योक्तप्रकारेणापि । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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