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________________ २५८ ] अष्टसहस्री [ कारिका १३ त्वप्रसङ्गात् । दर्शनस्य तज्जन्मरूपाविशेषेपि तदध्यवसायनियमादबहिरर्थविषयत्वमित्यसारं, वर्णादाविवोपादानेप्यध्यवसायप्रसङ्गात्, अन्यथोभयत्राध्यवसायायोगात् । न हि' रूपादावध्यवसायः संभवति, तस्य दर्शनविषयत्वोपगमात्, दर्शनस्यानध्यवसायात्मकत्वात् तस्याध्यवसायात्मकत्वे स्वलक्षणविषयत्वविरोधात् । [ बौद्धो निर्विकल्पदर्शनस्य सविकल्पज्ञानहेतुं मन्यते तस्य निराकरणं ] अदोषोयं, प्रत्यक्षस्याध्यवसायहेतुत्वादित्यनिरूपिताभिधानं सौगतस्य, तत्राभिलापाभावात् । यथैव हि वर्णादावभिलापाभावस्तथा प्रत्यक्षेपि तस्याभिलापकल्पनातोऽपोढत्वा चाहिये । बौद्धों का कहना कि जैसे पुत्र पिता का ही अनुकरण करता है, वैसे ही ज्ञान अपने विषय का अनुकरण करता है, यह कथन भी अयुक्त है, दर्शन का उपादान कारण समनन्तरप्रत्यय है, अर्थात् पूर्वक्षण ज्ञान से उत्तरक्षणरूप ज्ञान का होना, समनन्तरप्रत्यय है। क्योंकि पूर्वज्ञानक्षण उस दर्शन का समनन्तरकारण है । अत: इसके भी आकार का अनुकरण दर्शन में होना चाहिये। बौद्ध-दर्शन में तज्जन्यरूप समान होते हुये भी अर्थात् तदुत्पत्ति और ताप्य समान होते हुये भी उसमें अध्यवसाय का नियम होने से बाह्य अर्थ को विषय करना सिद्ध है। जैन-यह भी कथन सारभूत नहीं है, वर्णादि के समान उपादानरूप पूर्वज्ञान में भी अध्यवसाय का प्रसंग आ जावेगा, अन्यथा दोनों को ही अध्यवसाय नहीं हो सकेगा, क्योंकि रूपादिक में ही अध्यवसाय विकल्प रूप निश्चय संभव हो ऐसी बात नहीं है, क्योंकि उसमें दर्शन का विषयपना स्वीकार किया गया है। दर्शन अनध्यवसायात्मक है और यदि उसको अध्यवसायात्मक-विकल्पात्मक मान लोगे, तब तो वह दर्शन स्वलक्षण-निर्विकल्परूप स्वलक्षण को ही विषय करता है, यह बात विरुद्ध हो जावेगी। [ बौद्ध निर्विकल्प दर्शन को सविकल्पज्ञान का हेतु मानते हैं किन्तु जैनाचार्य उसका निराकरण करते हैं । बौद्ध-हमारे यहाँ यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि हमने निविकल्परूप प्रत्यक्ष को सविकल्परूप अध्यवसाय का हेतु माना है। 1 दर्शनं वर्णादिभावेन्द्रियाभ्यां जायते इति तज्जन्मरूपेण विशेपाभावेपि रूपादिकमध्यवस्यतीति नियमात् । दर्शनस्य बहिरर्थविषयत्वं घटते= स्या० इति वचोऽसारं कुतः यथा वर्णादिकोपादानेच्यवसायस्तथेन्द्रियोपादानेऽपि अध्यवसायो घटताम् । (दि० प्र०) 2 रूपादि । निश्चय । (दि० प्र०) 3 किञ्च । (व्या० प्र०) 4 रूपादिकं विषयः दर्शनं विषयि । नाकारणं विषय इति वचनात् विषयोध्यवसायको न भवति अनध्यवसायरूपदर्शनविषयत्वोपगमात् । प्रत्यक्ष कल्पनापोडमिति धर्मकीतिवाक। (व्या० प्र.) 5 दर्शनस्य । (दि. प्र.) 6 उक्तमप्यनुक्तप्रत्यक्षम् । (ब्या० प्र०) 7 अभिलापाभावात् विकल्पो नाम संश्रय इत्येव लक्षणस्याभिलापरहितानिर्विकल्पकप्रत्यक्षादुत्पत्तिविरोध इत्यर्थः । (दि० प्र०) 8 रूपादौ । (दि० प्र०) 9 व्यावृत्तत्वात् । (दि० प्र.) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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