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________________ २४४ ] अष्टसहस्री [ कारिका १२ ___सोयं सौगतस्तदभावात्तत्परप्रतिपादनार्थ शास्त्रमुपदेष्टारं वा वर्णयन् 'सर्व प्रतिक्षिपतीति कथमनुन्मत्तः ? स्वयमुपदिष्टं विचारप्रतिपादनार्थं शास्त्रादिकं प्रतिक्षिपन्नुन्मत्त एव स्यात् । [ सर्वं जगत् मायोपमं स्वप्नोपमं चेति मन्यमाने का हानि: ? ] अथ मायोपमाः स्वप्नोपमाश्च सर्वे भावा इति सुगतदेशनासद्भावान्न सर्वं प्रतिक्षिपन्तु यदि स्वरूप से संवृति को अस्तिरूप कहो तब तो हम जैन भी सभी वस्तुओं को स्वचतुष्टय से अस्तिरूप ही मानते हैं । इसी प्रकार से पररूप से नास्तिरूप आदि तीनों विकल्प हमारे अनुकूल ही हैं। तब बौद्ध ने कहा कि भाई ! हमारी मान्यता यह है कि "विचार-ऊहापोह या विकल्प का अभाव ही संवृति है।" इस पर जैनाचार्य कहते हैं कि भाई ! इस मान्यता से तो स्ववचनबाधित दोष आता है क्योंकि 'संवृति' में विचार नहीं है यह कथन भी विचार सहित ही है अतः आपकी संवृति का लक्षण तो अभी विचाराधीन ही है न कि निश्चित । श्लोकवार्तिक में स्वयं हो श्री विद्यानन्द महोदय से इसी का विशेष विचार किया है । . "न हि सर्वं सर्वस्यानिर्णीतमेव विचारात्पूर्वमिति स्वयं निश्चिन्वन् किञ्चित् निर्णीतमिष्टं प्रति क्षेप्तुमर्हति विरोधात् ।" सभी वादी प्रतिवादियों को विचार करने से पहले सभी तत्त्व अनिर्णीत ही होते हैं। इस बात को स्वयं निश्चय करता हुआ शून्यवादी या तत्त्वोपप्लववादी कुछ न कुछ निर्णय किये हुये इष्ट पदार्थ को स्वीकार ही करता है। सभी प्रकार से सबका खण्डन करने के लिये समर्थ नहीं हो सकता है, क्योंकि स्वयं कुछ माने बिना दूसरों का खण्डन करना बन नहीं सकता, विरोध आता है। तात्पर्य यह हुआ कि "विचार से पहले तत्त्वों का न होना" शून्यवादी इस प्रकार से अपने इष्टतत्त्व का निश्चय तो करता ही है बस ! यही उसका माना हुआ "इष्टतत्त्व" हो जाता है और जिसने कुछ न कुछ इष्टतत्त्व माना है, उसे प्रमाण भी मानना पड़ेगा । पुनः प्रमाण और प्रमेयरूप से तत्त्वों की सिद्धि हो जाने से शून्यवाद नहीं टिक सकता है। इस प्रकार से यह सौगत विचार का अभाव होने से दूसरों के लिये शास्त्रों का प्रतिपादन करना अथवा शास्त्र के उपदेष्टा दिग्नागाचार्य आदि का वर्णन करना आदि सभी का अपने मुख से हो खण्डन कर देता है, अतः वह शून्यवादो बौद्ध अनुन्मत्त कैसे है ! अर्थात उन्मत्त क्यों नहीं है ? क्योंकि स्वयं उपदिष्ट विचारों का प्रतिपादन करने के लिये शास्त्रादिकों का खण्डन करते हुये वह उन्मत्त ही है। [ सारा जगत् मायास्वरूप है और स्वप्नस्वरूप है ऐसा मानने से क्या हानि है ? ] बौद्ध-सभी भाव-पदार्थ मायास्वरूप हैं और स्वप्न के समान हैं, इस प्रकार से सुगत की देशना 1 सौगतस्तत्प्रतिपादनार्थम् शास्त्रमुपदिशन्नुपदेष्टारम् वा इति पा० । (दि० प्र०), विचारः । (दि० प्र०) 2 वस्तु । (दि० प्र०) 3 शुन्यत्वे सति उपदेष्टा कथं तत्प्रतिपादितं शास्त्रञ्च कथं तयोरपि शन्यत्वप्रसङ्गात् । (दि० प्र०) 4 यतः । (ब्या० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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