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________________ अभाव एकांत का खंडन ] प्रथम परिच्छेद [ २४५ न्मत्तः स्यादिति मतं तर्हि शौद्धोदनेरेव तावत्प्रज्ञापराधोयं लोकातिक्रान्तः कथं बभूवेत्यतिविस्मयमास्महे । तन्मन्ये पुनरद्यापि कीर्तयन्तीति किं बत परमन्यत्र मोहनीयप्रकृतेः ? [ इदं सर्वं जगत् श्रातमेव ] स्वप्नादिविभ्रमवत्सर्वस्य विभ्रमाददोषः [ भ्राती भ्रांतिरस्ति न वेत्युभयपक्षे दोषारोपणं । ] इति चेत्तहि विभ्रमे किमविभ्रमो विभ्रमो वा ? तत्राविभ्रमे कथं सर्वविभ्रमः ? विभ्रमेपि का सद्भाव होने से हम सभी का खण्डन करते हुये भी उन्मत्त नहीं हैं । अर्थात् यह सारा जगत् इन्द्रजालिया का खेल है। जैन-तब तो आपके बुद्ध की बुद्धि का यह अपराध लोकातिक्रांत-बहुत बड़ा कैसे हो गया ? इस प्रकार से हम लोगों को तो अतीव विस्मय हो रहा है । बड़े खेद की बात है कि वे दिग्नाग आचार्य आदि आज भी इस शून्यवाद का वर्णन करते हैं। मैं समझता हूँ कि इसमें मोहनीयकर्म को छोड़कर और कुछ भी अन्यकारण नहीं है कि जिससे वे ऐसा प्रतिपादन करते हैं। [ यह समस्त जगत् भ्रांतिस्वरूप है। ] बौद्ध-स्वप्नादि के समान सभी सुगत-बुद्ध भगवान् आदि विभ्रमरूप ही हैं, अतः हमारे यहाँ कोई दोष नहीं है। [ भ्रांति में भ्रांति है या नहीं ? इस प्रकार से दोनों पक्षों में दोषारोपण करते हैं। ] जैन-यदि ऐसी बात है, तब तो यह बतलाइये कि विभ्रम में विभ्रम है अथवा अविभ्रम ? अर्थात् आप बौद्ध के यहाँ सभी वस्तुएँ, सुगत भगवान् आदि भी केवल भ्रांति-कल्पनामात्र हैं, तब तो आपकी इस भ्रांति में भी भ्रांति ही है या भ्रांति में भ्रांति नहीं है ? यदि विभ्रम में अविभ्रम है, तब तो सभी विभ्रमरूप कैसे रहे ? यदि विभ्रम में भी विभ्रम है, तब तो विभ्रम कैसे रहा, अपितु विभ्रम में विभ्रम होने से तो वास्तविकता ही हो गई है, क्योंकि विभ्रम में भी विभ्रम मानने पर सर्वत्र अविभ्रम का प्रसंग प्राप्त होता है। तथा विभ्रम के विभ्रम में भी विभ्रम के स्वीकार करने पर वे ही प्रश्न एवं अनवस्था के आने से यह तो बहुत ही बड़ा दुरन्त अन्धकार ही नजर आता है। 1 स्वस्य स्वकीयोपदेशादिकस्य सर्वस्य भ्रान्तत्ववचनाल्लोकान्तिक्रान्तत्वं प्रज्ञापराधस्य। (दि० प्र०) 2 दिग्नागादयः । (ब्या० प्र०) 3 अज्ञानस्वभावात् । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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