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________________ अभाव एकांत का खंडन ] प्रथम परिच्छेद [ २४३ तथाग्रे समर्थयिष्यमाणत्वात् । अथ तदस्ति मृषात्मनेति' समानश्चर्चः मृषात्मनास्तित्वस्य स्वपरोभयानुभयरूपास्तित्वविकल्पचतुष्टयेप्युक्तदोषानुषङ्गात् ।। [ विचाराभावः संवृत्तिरिति मान्यतायामपि दोषः ] संवतिविचारानुपपत्तिरित्ययुक्तं, तदभावात् । न हि विचारस्याभावे कस्यचिद्विचारेणानुपपत्ति: शक्या वक्तुम् । नापि शून्यवादिनः किञ्चिन्निर्णीतमस्ति, यदाश्रित्य क्वचिदन्यत्रानिीतेर्थे विचार: प्रवर्तते, तस्य सर्वत्र विप्रतिपत्तेः । तथा चोक्तं तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके । "किञ्चिन्निर्णीतमाश्रित्य विचारोन्यत्र वर्तते । सर्वविप्रतिपत्तौ तु क्वचिन्नास्ति विचारणा" इति । यदि आप कहें कि वह हेयोपादेयज्ञान मृषात्मा-संवृतिरूप से है, तब तो समान ही प्रश्न उठते रहेंगे, क्योंकि संवृतिरूप से अस्तित्व के स्वीकार करने पर स्व, पर, उभय और अनुभयरूप अस्तित्व के चारों ही विकल्पों में उपर्युक्त दोषों का प्रसंग आता ही रहेगा। [ विचारों का न होना संवृति है, इस मान्यता से हानि ] शून्यवादी-"विचारानुपपत्ति-विचारों का न होना ही संवृति है।" जैन-यह भी कथन ठीक नहीं है, क्योंकि आपकी संवृति में इस लक्षण का अभाव है। देखिये ! विचार के अभाव में विचार की अनुपपत्ति है-विचार नहीं हो सकता है यह वाक्य भी किसी के द्वारा कहना शक्य नहीं है और शून्यवादी के यहाँ तो कुछ भी निर्णय नहीं हो सकता है कि जिसका आश्रय करके किसी अन्य अनिर्णीत पदार्थ में विचार प्रवृत्त हो सके, क्योंकि शून्यवादी के यहाँ प्रत्येक कथन विसंवाद को ही प्राप्त होता है । उसी प्रकार से श्लोकवार्तिक ग्रन्थ में भी कहा है श्लोकार्थ-किसी निर्णीत-प्रमाणादितत्त्व का आश्रय लेकर ही अन्यत्र अनिर्णीत पदार्थ में विचार किया जा सकता है, किन्तु सर्वत्र विसंवाद के स्वीकार कर लेने पर तो कहीं पर कुछ भी विचार नहीं किया जा सकता है । अर्थात् शून्यवाद की स्थापना करना भी दुष्कर ही हो जाती है। भावार्थ-जैनाचार्य ने शून्यवादी से कहा कि भाई ! आप अंतरंग, बहिरंग को तो हेय कहते हैं और शून्यवाद को उपादेय कहते हैं। आपके पास कोई प्रमाण तो है नहीं पुनः हेय का निषेध और उपादेय का विधान भी कैसे करते हो ? तब उसने शीघ्र ही कह दिया कि हमारे यहाँ सारी व्यवस्था संवृति से है पुन: आचार्यों ने प्रश्न कर दिया कि "संवृति" का अर्थ क्या है ? इस पर आचार्य ने स्वयं ही चार विकल्प उठाये हैं कि यह आपकी संवृति स्वरूप से अस्तिरूप है, पररूप से नास्तिरूप है, स्वपररूप से अस्तिनास्तिरूप है या अवक्तव्य रूप है ? 1 ता । (दि० प्र०) 2 संवृत्तिः का इत्युक्ते आह परः विचारेणानुपपत्ति स्या० इत्युक्तम् । (दि० प्र०) 3 शून्यवादिनोऽभावोपि नास्ति । (ब्या० प्र०) 4 सत्वेषु । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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