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________________ २४२ ] अष्टसहस्री [ कारिका १२ वैयात्यं सूचयति, 'न्यायबलान्न्यक्कृतस्यापि स्वार्थसिद्धिविकलं प्रलपतो धाष्यमात्रप्रसिद्धः स्वरूपेणास्तित्वस्य संवेदनवत्सर्वभावानां स्याद्वादिभिरभीष्टत्वात् तेन तदनुकूलकरणात्संप्रतिपत्तेः । अथ' पररूपेण नास्ति इत्ययमर्थस्तथैव स्याद्वादिना, नाम्नि विवादात् । एतदपि तादगेव, पररूपेण ग्राह्यग्राहकाभावादिविकलसंवेदनवत्सर्वपदार्थानां नास्तित्वे विवादाभावात् । तदेतेनोभयानुभयविकल्पः प्रत्युक्तः । यदि हि संवृत्त्यास्तीति स्वपररूपाभ्यामस्ति नास्ति चेत्ययमर्थस्तदा न कश्चिद्विवादः । 'अथानुभयरूपेणानुभयमित्यर्थस्तदापि न कश्चिद्विवादः, इति स्वरूपेणास्ति' अर्थात् वह संवृति भी यदि अपने स्वरूप से अस्तित्व-विद्यमानरूप है, तब तो यह अर्थ हमारे अनुकूल ही है और वह केवल वक्ता-शून्यवादी माध्यमिक बौद्ध की धृष्टता को ही सूचित करता है । इस न्याय के बल से तिरस्कार कर देने पर भो स्वार्थसिद्धिरूप अपने नैरात्म्यवाद का प्रलाप करता हुआ वादी अपनी धृष्टता को ही सूचित करता है, क्योंकि जैसे आपने संवेदन का स्वरूप से अस्तित्व स्वीकार किया है, उसी प्रकार से स्याद्वादियों ने सभी पदार्थों का स्वरूप से अस्तित्व स्वीकार किया है, अतः आप बौद्ध ने तो हमारे ही अनुकूल कथन किया है, इसमें तो हमें किसी प्रकार का विवाद नहीं है। यदि आप उस “संवृत्यास्ति पद का अर्थ पररूप से नहीं ऐसा करते हैं, तब भी उसी प्रकार से स्वरूप से अस्तित्व के समान हम स्याद्वादियों को इष्ट है। इसमें नाम में ही विवाद है, वास्तव में अर्थभेद कुछ भी नहीं है और यह पक्ष भी हमारे अनुकूल ही है। पररूप से ग्राह्य-ग्राहक अभाव आदि से विकल संवेदन के समान सभी पदार्थों का नास्तित्व स्वीकार करने पर विवाद का अभाव है । अर्थात् ग्राह्य-ग्राहकभाव के अभाव से विकल का अर्थ है "ग्राह्य-ग्राहकभाव से सहित ज्ञान का अस्तित्व मानने में कुछ विरोध नहीं है। इसी कथन से ही उभय एवं अनुभयविकल्प का भी खण्डन किया समझना चाहिये । क्योंकि यदि संवृति से है, इसका अर्थ "स्वस्वरूप से वस्तु है, पररूप से नहीं है" तो वस्तु स्वपररूप से 'अस्तिनास्ति' भंगरूप हो जाने से तीसरे भंगरूप हो जाती है, इसमें कोई भी विवाद नहीं है। यदि संवृति पद का चौथे भंगरूप 'अनुभयरूप से वस्तु अवक्तव्य है" ऐसा अर्थ करते हैं, तब भी किसी प्रकार का विवाद नहीं होता है इस बात का हम आगे अच्छी तरह से समर्थन करेंगे। 1 पूर्वोक्तयुक्तिः सामर्थ्यात् । (ब्या० प्र०) 2 वादिनः । (ज्या० प्र०) 3 कुतः । (दि० प्र०) 4 तथैव स्वरूपेणास्तित्ववदेव एतदपि पररूपेणास्तित्वमपि तादगेव । कुतः स्याद्वादिना नाम्निविवादात नत्वर्थे इति तथैव शब्दादे तदपि तादृगेव शब्दपर्यन्तस्य वाक्यस्यार्थः । (दि० प्र०) 5 विवादे तदपि इति पा० । (दि. प्र.) 6 कोर्थः । (दि० प्र०) 7 आह परः संवृत्त्यानुभयमस्तीति । स्या० स्वपररूपाभावाभ्यामनुभयमित्यर्थः । (दि० प्र०), अनुभयमस्तीति, अधिकः पाठः । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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