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________________ अभाव एकांत का खंडन ] प्रथम परिच्छेद [ २४१ ह्रीकः केवलं विक्रोशति तत्त्वोपप्लववादिवत् । अथ संवृत्त्या हेयस्य सद्वादस्योपादेयस्य च शून्यस्य तन्निषेधविधानोपायस्य चाभ्युपगमान्न शून्यवादिनो निर्लज्जता नापि विक्रोशमात्रमिति मतिः। [ संवृतिशब्दस्य कोऽर्थः ? ] तहि यदि संवृत्त्यास्तीति स्वरूपेणेत्ययमर्थस्तदा कृतमनुकूलं, केवलं वक्तात्मनो भावार्थ-शून्यवादी बौद्ध का यह कहना है कि हमारा शून्यवाद न जानने योग्य है और न उसको बताने वाला कोई प्रमाण ही है। इस नैरात्म्यवाद का ज्ञान तो स्वयं ही सबको हो रहा है। फिर भी जो हेतु का प्रयोग किया जाता है वह इसलिये है कि यदि नैरात्म्यवाद में समारोप-संशय, विपरीत या अनध्यवसाय हो जावे तो उनका निराकरण करने के लिये हेतु का प्रयोग है न कि शून्यवादरूप साध्य की सिद्धि के लिये। इस पर जैनाचार्य ने यह प्रश्न किया है कि वह हेतु वास्तव में समारोप को दूर करने वाला है या झूठरूप से ? यदि प्रथम पक्ष लेवो तब तो “समारोप का दूर होना" यह साध्य हो गया और उसको दूर करने वाला हेतु साधन बन गया। “साध्य-साधन" व्यवस्था बन ही गई पुनः वास्तविक साध्य-साधन की सिद्धि हो जाने से शून्यवाद कहाँ रहा ? और यदि नैरात्म्य के विषय में जिस समारोप को दूर किया है, वह काल्पनिकमात्र है तब तो भाई ! शून्यवाद की कल्पना, उसमें दोषों का आना, उन्हें दूर करना आदि काल्पनिक है, फिर शून्यवाद ही काल्पनिक सिद्ध हो गया। बस ! चेतन अचेतन तत्त्वों की ही सिद्धि हो गई, ऐसा समझना चाहिये।। ___ अत: यह शून्यवादी हेय-अंतर्बहिस्तत्त्व और उपादेय-अपना नैरात्म्यवादतत्व, इनका जो हेयोपादेयरूप विवेक है उस हेयोपादेयक उपाय से रहित निर्लज्ज होकर तत्त्वोपप्लववादी के समान केवल पूत्कार करता है अर्थात् बक-बक कर रहा है। __ शून्यवादी-हेयरूप सत्-अस्तित्ववाद और उपादेयभूत-शून्यवाद इनमें हेय का निषेध और उपादेय के विधानरूप उपायों को मात्र हमने संवृति से ही स्वीकार किया है, अतः हम शून्यवादी न तो निर्लज्ज ही हैं एवं न हमारा कथन विक्रोशमात्र ही है। अर्थात् हम शून्यवाद का साधन और आस्तिक्यवादियों का खंडन संवृति से ही करते हैं। [ संवृति शब्द का अर्थ क्या है ? ] जैन-तब तो पहले आप यह बतलाइये कि संवृति शब्द का अर्थ क्या है ? यदि "संवृत्यास्ति 1 शून्यवाद्याह । हे स्याद्वादिन् ! मम कल्पनया कृत्वाऽस्तित्ववादो हेयः शुन्यवाद उपादेयः तयोनिषेधविधानमेव प्रमाणमस्ति तस्मान्मम न निगृहीतानामपि प्रलापमात्रम् =स्या० हे श० इति मतिस्ते । तर्हि यदि त्वया कल्पनयाऽस्-ि तत्वं प्रतिपाद्यतेऽस्माभिः स्वरूपेणेत्यभिप्रायः तदा त्वया ममातुकूलमाचरितं ननु प्रतिकूलं यतिः संवृत्तिस्वरूपयोः नत्वर्थभेदः । (दि० प्र०) 2 ता । (ब्या० प्र०) 3 बाध्यबाधकभावादिशून्यस्य संविमानं स्वयमपि समारोपस्य बाधकं न भवतीति ज्ञापनार्थमिदं विशेषणं प्रमाणवलेन शुन्यवादिन: शून्यव्यवस्थासंभवेपि पुनः संवृत्यास्तीति निरुपपत्तिकमुक्तत्वात् सोपहासमनेकधा विकल्पयन्ति ग्रन्थकाराः। अथवा बलादेः पराजयकारणत्वं निराचिकीर्षत्वः प्राहुः स्वरूपेणेत्ययमर्थमित्यादि। (दि० प्र०) 4 स्वीकृतः । (ब्या० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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