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________________ २४० ] अष्टसहस्री [ कारिका १२ [ नैरात्म्यं साधयितुं हेतुप्रयोग आवश्यक एव ] स्वरूपस्य' वेद्यवेदकभावादिशून्यस्य स्वतोगते: साधनोपन्यासेन तत्र समारोपव्यवच्छेदेपि समानं, कुतश्चित्तत्त्वतः समारोपव्यवच्छेदे संवृत्त्या साध्यसाधनव्यवस्थितेरयोगात्', 'तत्समारोपव्यवच्छेदस्याप्यपरमार्थत्वे पुनरव्यवच्छिन्नसमारोपस्य बाध्यबाधकभावादिशून्यस्य संविन्मात्रस्य स्वतोपि गत्यनुपपत्तेस्तदशून्यत्वप्रसङ्गात् । ततो हेयोपादेयोपायरहितमयम में चेतन-अचेतनरूप अन्तस्तत्त्व, बहिस्तत्त्व की ही सिद्धि हो जाने से शून्यवाद का ही खण्डन हो जावेगा। अतएव शून्यवाद को सिद्ध करने में आपके द्वारा दिया गया हेतु उससे विपरीत वास्तविक तत्त्व व्यवस्था को ही सिद्ध कर देगा। [ नैरात्म्य को सिद्ध करने के लिये हेतु का प्रयोग आवश्यक ] बौद्ध-हमारा नैरात्म्यवाद तो वेद्य-वेदक आदि भावों से भी शून्य है, अतः इस नैरात्म्यवाद की गति-ज्ञान स्वतः किसी प्रमाण के ही हो जाता है । फिर भी नैरात्म्यवाद की सिद्धि के लिये जो हेतु का प्रयोग किया जाता है, वह नैरात्म्यवाद विषयक समारोप को व्यवच्छेदार्थ-दूर करने के लिये समझना चाहिये। जैन-यह कथन भी उचित नहीं है, क्योंकि नैरात्म्यवाद विषयक समारोप का संशय, विपरीत और अनध्यवसाय का निराकरण करने के लिये जिस किसी का भी प्रयोग किया जावेगा और वह यदि तत्त्वतः समारोप को दूर करने वाला है, तब तो समारोपव्यवच्छेद साध्य और इसका व्यच्छेदक साधन होगा। अर्थात् समारोप का दूर होना साध्य है और समारोप को दूर करने वाला साधन है, अतः यहाँ पर भी यदि साध्य-साधन व्यवस्था तात्विक मानी जावेगी, तब तो "साध्य-साधन की व्यवस्था संवृति से काल्पनिक है," यह कथन उचित नहीं होगा। तथा यदि नैरात्म्यविषयक जिस समारोप का व्यच्छेद हुआ है, वह समारोप व्यवच्छेद भी अपरमार्थभूत है । बाध्य-बाधक आदि भावों से शून्य है तथा संवित्मात्र ही है, तब तो उसका स्वतः स्वरूप से गति-ज्ञान होना बन नहीं सकता है । पुनः वह अंतस्तत्त्व एवं बहिस्तत्त्व अशून्य-अस्तित्वरूप सिद्ध हो जाता है । 1 बहिरन्तश्च परमार्थसदित्यादि भाष्यतारभ्य एतत् पर्यन्तं विज्ञानाद्वैतवाद्यपेक्षयापि सर्वं यथा योग्यं सम्बन्धनीयम् । (दि० वि०) 2 संवित्तिः । (ब्या० प्र०) 3 साधनात् । (दि० प्र०) 4 स्वरूपे साधनव्यवस्थापनेन वेद्यवेदकाकारलक्षणसमारोपरहितत्वेपि पूर्वोक्तवदत्रापि समानं साधनं कथमित्याह । स्या० हे शून्यवादिन् ! समारोपव्यवच्छेदः परमार्थतः कल्पनया वेति विचारः। तत्र स्वरूपे कुतश्चित्प्रमाणात्परमार्थतः वेद्यबेदकाकारवाध्यवाधकादिलक्षणसमारोपनिराकरणमस्तीत्यङ्गीकारे तदा कल्पनया साध्यसाधनव्यवस्थितिर्न घटते । (दि० प्र०) 5 परमार्थरूपस्य साधनसद्भावोतः शून्यकान्तवादविरोधात् । (ब्या० प्र०) 6 ईन् । (ब्या० प्र०) 7 साध्ये। (ब्या० प्र०) 8 बाध्यः समारोपस्तस्मिन् बाधकभावादिरहितस्य । (ब्या० प्र०) 9 तस्य वेद्यवेदकाकारो बाध्यं स्वतो गतोरिति साधनं बाधकमिति बाध्यबाधकभावस्याशून्यत्वमायाति । (दि० प्र०) 10 स्या० यत एवं ततोऽयं शुन्यवादी सौगतो निर्लक्ष: केवलं प्रमाणरहितं पूत्करोति । (दि० प्र०) 11 प्रमाणम् । यथा भवति तथा । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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