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________________ पूर्व पाटलिपुत्रमध्यनगरे, भेरी मया ताडिता । पश्चान्मालवसिन्धुठक्कविषये कांचीपुरे वैदिशे । प्राप्तोऽहं करहाटकं बहुभट विद्योत्कटं संकट, वादार्थो विचराम्यहं नरपते ! शार्दूलविक्रीडितम् ॥ मैंने पहले पटना नगर में वाद की भेरी बजाई, पुनः मालवा सिन्धु-देश, ढक्क- ढाका (बंगाल), काञ्चीपुर और वैदिश-विदिशा-भेलसा के आसपास के प्रदेशों में भेरी बजाई । अब बड़े-बड़े वीरों से युक्त इस करहाटक नगर को प्राप्त हुआ हूँ। इस प्रकार हे राजन् ! मैं वाद करने के लिये सिंह के समान इतस्ततः क्रीड़ा करता हुआ विचरण कर रहा हूँ। राजा शिवकोटि समंतभद्र के इस आख्यान को सुनकर भोगों से विरक्त हो दीक्षित हो गये। ऐसा वर्णन है। गुरु-शिष्य परंपरा-यद्यपि समंतभद्र की गुरु-शिष्य परंपरा के विषय में बहुत कुछ अनिर्णीत ही है। फिर भी इन्हें किन्हीं प्रशस्तियों में उमास्वामी के शिष्य बलाकपिच्छ के पट्टाचार्य माना है। श्रवणबेलगोला के एक अभिलेख में भी आया है-"श्रीगृद्धपिच्छमनिपस्य बलाकपिच्छः । शिष्योऽजनिष्ट'। एवं महाचार्यपरंपरायां,.."समंतभद्रोऽजनि वादिसिंहः । __ अर्थात् भद्रबाहुश्रुतकेवली के शिष्य चंद्रगुप्त, चंद्रगुप्त के वंशज पद्मनंदि अपरनाम श्री कुन्दकुन्दाचार्य, उनके वंशज गृद्धपिच्छाचार्य, उनके शिष्य बलाकपिच्छ और उनके पट्टाचार्य श्रीसमंतभद्र हुये हैं। "श्रुतमुनि-पट्टावलिः' में भी कहा है तस्मादभूद्-योगिकुलप्रदीपो, बलाकपिच्छः स तपोमहद्धिः । यदंगसंस्पर्शनमात्रतोऽपि, वायुविषादीनमृतीचकार ॥१३॥ समंतभद्रोऽजनि भद्रमूर्तिस्ततः प्रणेता जिनशासनस्य । यदीयवाग्वज्रकठोरपातश्चूर्णीचकार प्रतिवादिशैलान् ॥१४॥ चन्नरायपट्टण ताल्लुका के अभिलेख नं० १४६ में इन श्रुतकेवलि के ऋद्धि मानी है और वर्धमान जिन के शासन की सहस्रगुणी वृद्धि करने वाला कहा है । समय निर्धारण-आचार्य समंतभद्र के समय के संबंध में विद्वानों ने पर्याप्त ऊहापोह किया है । मि० लेविस राईस का अनुमान है कि ये आचार्य ई० की प्रथम या द्वितीय शताब्दी में हुये हैं। डा० ज्योतिप्रसाद जी आदि ने भी सन् १२० में राजकुमार के रूप में, सन् १३८ में मुनि पद में, सन् १८५ के लगभग स्वर्गस्थ हुये ऐसे ईस्वी सन् की द्वितीयशती को ही स्वीकार किया है। अतएव संक्षेप से समंतभद्र का समय ईस्वी सन् द्वितीय शताब्दी ही प्रतीत होता है। 1. जैन शिलालेखसंग्रह, प्रथम भाग, लेख संख्या ४०, पद्य ८-६, पृ० २५ । 2. तीर्थंकर महावीर और ऊनकी आचार्य परंपरा भाग ४, पृ० ४११ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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