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समंतभद्र की रचनायें
१. वृहत्स्वयंभू स्तोत्र, २. स्तुतिविद्या - जिनशतक, ३. देवागमस्तोत्र आप्तमी सांसा, ४. युक्त्यनुशासन, ५. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, ६. जीवसिद्धि, ७. तत्त्वानुशासन, ८. प्राकृतव्याकरण, ६. प्रमाण पदार्थ, १० कर्मप्राभृतटीका, ११. गंधहस्तिमहाभाष्य ।
( ३१ )
१. “स्वयंभुवा भूतहितेन भूतले" आदि रूप से स्वयंभूस्तोत्र, धर्मध्यान दीपक आदि पुस्तकों में प्रकाशित हो चुका है। यह सटीक भी छप चुका है ।
२. " स्तुतिविद्या" इसमें भी चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति है जो कि एक अक्षर, दो अक्षर आदि के श्लोकों में अथवा मुरजबंध, हारबंध आदि चित्रकाव्यरूप श्लोकों में एक अपूर्व ही रचना है ।
३. इस देवागमस्तोत्र में सर्वज्ञदेव को तर्क की कसौटी पर कसकर सच्चा आप्त सिद्ध किया गया है । तत्कालीन नैरात्म्यवाद, क्षणिकवाद, ब्रह्माद्वैतवाद, पुरुष - प्रकृतिवाद, आदि की समीक्षा करते हुये स्याद्वाद सिद्धान्त की प्रतिष्ठा जैसी इस ग्रन्थ में उपलब्ध है वैसी सप्तभंगी की सुन्दर व्यवस्था अन्यत्र जैनवाङ्मय में आपको नहीं मिलेगा | यह स्तोत्र ग्रन्थ केवल तत्त्वार्थसूत्र के "मोक्षमार्गस्य मंगलाचरण को आधार करके बना है । इसी स्तोत्र पर अकलंक देव ने अष्टशती नाम का भाष्य ग्रन्थ बनाया है और विद्यानंद आचार्य ने अष्टसहस्री नाम का जैन दर्शन का सर्वोच्च ग्रन्थ निर्मित किया है ।
४. युक्त्यनुशान में भी परमत का खंडन करते हुये आचार्यदेव ने वीर के तीर्थ को सर्वोदय तीर्थं घोषित किया है ।
५. रत्नकरण्ड श्रावकाचार में तो १५० श्लोकों में ही आचार्यदेव ने श्रावकों के सम्पूर्ण व्रतों का वर्णन कर दिया है । इसमें अतिथिसंविभाग व्रत के स्थान पर वैयावृत्य का सुन्दर स्वरूप बतलाकर इसी व्रत में देव पूजा को भी ले लिया है ।
आगे की ७ रचनायें आज उपलब्ध नही हैं ।
इस प्रकार से श्री समंतभद्राचार्य अपने समय में एक महान आचार्य हुए हैं । इनकी गौरव गाथा गाने के हम और आप जैसे साधारण लोग समर्थ नहीं हो सकते हैं । कहीं-कहीं इन्हें भावी तीर्थंकर माना गया है ।
लिये
श्रीअकलंकदेव आचार्य
जैन दर्शन में अकलंकदेव एक प्रखर तार्किक और महान दार्शनिक हुये हैं । बौद्ध दर्शन में जो स्थान धर्मकीर्ति को प्राप्त है, जैन दर्शन में वही स्थान अकलंकदेव का है। इनके द्वारा रचित प्रायः सभी ग्रन्थ जैन दर्शन और जैन न्याय विषयक हैं ।
श्री अकलंकदेव के सम्बन्ध में श्रवणबेलगोला के अभिलेखों में अनेक स्थान पर स्मरण आया है ।
अभिलेख संख्या ४७ में लिखा है
1. जैन शिलालेख संग्रह, भाग १ अभिलेख ४७ ।
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षट्तव कलंक देवविबुधः साक्षादयं भूतले' |
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