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________________ ( २६ व्याधि नामक भयानक रोग हो गया, जिससे दिगम्बर मुनि चर्या का निर्वाह उन्हें अशक्य प्रतीत हुआ । तब उन्होंने गुरु से समाधिमरण धारण करने की इच्छा व्यक्त की। गुरु ने भावी होनहार शिष्य को आदेश देते हुये कहा "आपसे धर्म प्रभावना के लिये बड़ी-बड़ी आशायें हैं अतः आप दीक्षा छोड़कर रोग शमन का उपाय करें, रोग दूर होने पर पुनः मुनिदीक्षा ग्रहण करके स्वपर कल्याण करें ।" गुरु की आज्ञानुसार समंतभद्र रोगोपचार हेतु जिनमुद्रा छोड़कर सन्यासी बन गये और इधर-उधर विचरण करने लगे । एक समय वाराणसी में शिवकोटि राजा के शिवालय में जाकर राजा को आशीर्वाद दिया और शिवजी को ही मैं खिला सकता हूँ ऐसी घोषणा की। राजा की अनुमति प्राप्त कर समंतभद्र शिवालय के किवाड़ बंद कर उस नैवेद्य को स्वयं ही भक्षण कर रोगको शांत करने लगे । शनैः शनैः उनकी व्याधि का उपशम होने लगा अतः भोग की सामग्री बचने लगी तब राजा को संदेह हो गया । अतः गुप्तरूप से उसने इस रहस्य का पता लगा लिया । तब समंतभद्र से उन्होंने शिवजी को नमस्कार के लिये प्रेरित किया समंतभद्र ने इसे उपसर्ग समझकर चतुर्विंशति तीर्थंकरों की स्तुति प्रारंभ की। जब वे चन्द्रप्रभ की स्तुति कर रहे थे कि शिव की पिंडी से भगवान् चन्द्रप्रभ की प्रतिमा प्रकट हो गई । समंतभद्र के इस माहात्म्य को देखकर शिवकोटि राजा अपने भाई शिवायन सहित उनके शिष्य बन गये । । यह कथानक "राजाबलिकथे" में उपलब्ध है । श्रवणबेलगोला के एक अभिलेख में लिखा है वंद्यो भस्मकभस्मसात्कृतिपटुः पद्मावतीदेवता- दत्तोदात्तपदस्व मंत्रवचनव्याहृतचन्द्रप्रभः । आचार्यस्स समंतभद्रगणभृद्येनेह काले कलौ, जैनं वर्त्म समंतभद्रमभवद्भद्रं समन्तान्मुहुः ॥ भस्मसात् करने में चतुर हैं, पद्मावती नामक देवी की दिव्य शक्ति मंत्रवचनों द्वारा जिन्होंने चन्द्रप्रभ को प्रकट किया है और जिनके में सब ओर से भद्ररूप हुआ है वे गणनायक आचार्य श्री समंतभद्र अर्थात् जो अपने भस्मक रोग को के द्वारा जिन्हें उदात्त पद की प्राप्ति होने से द्वारा यह कल्याणकारी जैनमार्ग इस कलिकाल स्वामी बार-बार हम सभी के द्वारा वंद्य हैं । आराधना कथाकोष में मूर्ति प्रकट होने के अनंतर ऐसा प्रकरण आया है कि चन्द्रप्रभ की मूर्ति प्रकट होने के इस चमत्कार को देखकर उनकी स्तोत्र रचना पूरी होने के बाद राजा शिवकोटि ने उनसे उनका परिचय पूछा। तब समंतभद्र ने उत्तर देते हुए कहा - कांच्यां नग्नाटकोsहं, मलमलिनतनुर्लम्बिशे पांडुपिण्ड: । पुण्ड्र ेण्डे शाक्यभिक्षुर्दशपुरनगरे, मिष्टभोजी परिव्राट् । वाराणस्यामभूवं शशकरधवलः पाण्डुरांगस्तपस्वी । राजन् ! यस्यास्ति शक्तिः स वदतु पुरतो जैन निर्ग्रन्थवादी ॥ मैं कांची में नग्न दिगम्बर यति के रूप में रहा, शरीर में रोग होने पर पुण्ड्र नगरी में बौद्ध भिक्षु बनकर मैंने निवास किया । पश्चात् दशपुर नगर में मिष्ठान्न भोजी परिव्राजक बनकर रहा । अनंतर वाराणसी में आकर शैव तपस्वी बना । हे राजन् ! मैं जैन निर्ग्रन्थवादी हूँ । यहाँ जिसकी शक्ति वाद करने की हो वह मेरे सम्मुख आकर वाद करे। पुनश्च - 1. जैन शिलालेखसंग्रह, प्रथम भाग, अभिलेख संख्या ५४, पृ० १०२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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