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________________ ( २८ ) नमः समंतभद्राय महते कविवेधसे । यद्वचोवज्रपातेन निभिन्ना कुमतादयः॥ कवीनां गमकानां च वादिनां वाग्मिनामापि । यशः सामन्तभद्रीय मूनि चूड़ामणीयते ॥ मैं कवि समंतभद्र को नमस्कार करता है, जो कि कवियों के लिये ब्रह्मा हैं और जिनके बचनरूपी वज्रपात से मिथ्यामतरूपी पर्वत चूर-चूर हो जाते हैं । कविगण, गमकगण, वादीगण और वाग्मीगण इन सभी के मस्तक पर श्री समंतभद्र स्वामी का यश चूड़ामणि के समान शोभित होता है । स्वतन्त्र कविता करने वाले “कवि" कहलाते हैं, शिष्यों को मर्म तक पहुँचा देने वाले “गमक", शास्त्रार्थ करने वाले “वादी" और मनोहर व्याख्यान देने वाले “वाग्मी" कहलाते हैं । श्रीशुभचंद्र आचार्य, श्रीवर्द्धमानसूरि, श्रीजिनसेनाचार्य और श्रीवादीभसिंहसूरी आदि ने अपने-अपने ग्रन्थ ज्ञानार्णव, वरांगचरित, अलंकार चितामणि और गद्यचितामणि आदि में श्री समंतभद्र स्वामी की सुन्दर-सुन्दर श्लोकों में स्तुति की है। ये जैनधर्म और जैनसिद्धांत के मर्मज्ञ विद्वान होने के साथ-साथ तर्क, व्याकरण, छन्द, अलंकार एवं काव्य, कोष आदि विषयों में पूर्णतया अधिकार रखते थे। सो ही इनके ग्रन्थों से स्पष्ट झलक जाता है । इन्होंने जनविद्या के क्षेत्र में एक नया आलोक विकीर्ण किया है। श्रवणबेलगोला के अभिलेखों में तो इन्हें जिन शासन के प्रणेता और भद्रमूर्ति कहा गया है। - इनका जीवन परिचय, मुनिपद, गुरु-शिष्य परंपरा, समय और इनके रचित ग्रन्थ इन पांच बातों पर यहाँ संक्षेप में प्रकाश डाला जायेगा। जीवन परिचय इनका जन्म दक्षिण भारत में हुआ था। इन्हें चोल राजवंश का राजकुमार अनुमित किया जाता है । इनके पिता उरगपुर (उरैपुर) के क्षत्रिय राजा थे। यह स्थान कावेरी नदी के तट पर फणिमण्डल के अन्तर्गत अत्यन्त समृद्धशाली माना गया है । श्रवणबेलगोला के दोरवली जिनदासशास्त्री के भंडार में पाई जाने वाली आप्तमीमांसा की प्रति के अन्त में लिखा है-"इति फणिमंडलालंकारस्योरगपुराधिपसूनोः श्रीस्वामीसमंतभद्रमुनेः कृतो आप्तमीमांसायाम्"-इस प्रशस्तिवाक्य से स्पष्ट है कि समंतभद्र स्वामी का जन्म क्षत्रियवंश में हुआ था और उनका जन्मस्थान उरगपुरे है। ___ इनका जन्म नाम शांतिवर्मा बताया जाता है "स्तुतिविद्या" अपरनाम "जिनस्तुतिशतक" के ११६वें पद्य में कवि और काव्य का नाम चित्रबद्धरूप में अंकित है। इस काव्य के छह आरे और नव वलय वाली चित्ररचना पर से "शांतिवर्मकृतम्" और "जिनस्तुतिशतम्" ये दो पद निकलते हैं। संभव है यह नाम माता पिता के द्वारा रखा गया हो और "समंतभद्र" मुनि अवस्था का हो । मुनिदीक्षा और भस्मकव्याधि मुनिदीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् जब वे मणुवकहल्ली स्थान में विचरण कर रहे थे कि उन्हें भस्मक 1. महापुराण, भाग १, । (४४-४३)। Jain Education International Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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