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________________ २२६ ] अष्टसहस्री [ कारिका ११ तस्याभावे स्वयं प्रकाशनविरोधात् । न किञ्चित्प्रमाणं सर्वात्मना भावमभावं वा' ग्रहीतुमर्हति', अनियमप्रसङ्गात् । ताथागतानां हि भाव एव प्रमाणविषय इति भावप्रमेयकान्तप्रकाश का अभाव हुआ मतलब अंधेरा आ गया, जैसे प्रकाश पुद्गल की पर्याय थी, वैसे ही अंधकार भी तो पुद्गल की ही पर्याय है और देखिये ! किसी ने आप से कहा आकाश पुष्प नहीं है, तो भाई ! तरु-वृक्ष और लताओं में तो पुष्प विद्यमान ही हैं। आपने कहा कि "अजैनमानय" अजैन को लाओ तो जैन के बजाय कोई ब्राह्मण आदि पुरुष हो लाया जाता है अत: अभाव हमेशा ही एक भिन्न भाव रूप ही है । दूसरी बात यह है कि जगत् में कोई ऐसी वस्तु ही नहीं है, कि जिसमें अभाव गुण नहीं होने यह पुस्तक है तो मतलब यही है कि यह चौकी पत्थर आदि नहीं है। यदि यह अस्तित्व गुण नास्तित्व के साथ अविनाभावी न रहे तो वस्तुव्यवस्था ही नहीं बनेगी। यदि आपने कहा कि दधि खाओ तो कोई भोला प्राणी ऊंट के पास भी दौड़ जावेगा "प्रेरितो दधि खादेति किमुष्ट्र नाभिधावति" अतएव प्रत्येक द्रव्य को-पदार्थ को भावाभावात्मक ही मानना पड़ेगा और उस भावाभावात्मक वस्तु को ग्रहण करने वाले जो प्रमाण हैं, सो ही हैं पृथक से अभाव नामक कोई प्रमाण नहीं है। हम प्रत्यक्ष प्रमाण से भी अनुभव करते हैं कि यह चेतनद्रव्य पुद्गल नहीं है, पौद्गलिक-शरीर पड़ा रह गया चैतन्यआत्मा चली गई, अनुमान भी लगाते हैं, एवं प्रत्यभिज्ञान आदि से भी निर्णय कर लेते हैं । तथैव यह चौकी है तो यह पत्थर है, पुस्तक, पेन, कमंडलु आदि नहीं है, यह इतरेतरा भाव भी प्रत्यक्ष, अनुमान आदि से सिद्ध है, उसी प्रकार से प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव भी प्रत्यक्षादि से सिद्ध है। मिट्टी में घड़ा, बीज में अंकुर, दूध में घी किसी को भी नहीं दिखता है, वही तो प्रागभाव है, कारण में कार्य का न होना ही तो प्रागभाव नाम से कहा जाता है, पुनः प्रागभाव का अभाव होकर कारण से ही कार्य बन जाता है, तभी तो कार्य-कारणभाव संबंध माना जाता है। घट में कपाल-टकड़े नहीं हैं यह बात भी प्रत्यक्ष से सिद्ध है, इसी का नाम प्रध्वंसाभाव है, जब इस प्रध्वंसाभाव का अभाव होगा-घट का प्रध्वंस होगा तब टुकड़े दीखेंगे। इसीलिये जैनाचार्यों का ऐसा कहना है कि प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, इतरेतराभाव और अत्यंताभाव इन चारों ही अभावों का ज्ञान प्रत्यक्ष, अनुमान, प्रत्यभिज्ञान, तर्क आदि प्रमाणों से होता है, क्योंकि ये चारों ही अभाव भावांतररूप ही हैं। सर्वथा निःस्वभाव-तुच्छाभावरूप नहीं हैं, जैसे कि आप लोगों ने भावात्मक वस्तुओं का ज्ञान इन प्रत्यक्षादि प्रमाणों से अबाधित रूप से माना है, वैसे ही आप लोगों को इन अभावों के ज्ञान में भी विसंवाद को समाप्त कर देना चाहिये, क्योंकि सभी वस्तुयें भावाभावात्मक सिद्ध हो रही हैं । न्याय सिद्धांत के अनुसार “प्रतीतेपलापकर्तुं न शक्यते" प्रतीति का लोप करना शक्य नहीं है, ऐसा समझना चाहिये। क्योंकि सभी पदार्थ स्वस्वरूप से भावस्वरूप और परस्वरूप से अभावस्वरूपलक्षण वाले ही हैं। जैसे कि निःश्रेणी की पदपंक्ति (पैर रखने की डंडियां) आजू-बाजू के दो दीर्घ काष्ठ से बंधी हुई हैं, उसी प्रकार से ही सभी पदार्थ भाव-अभावरूप दो स्वभाव से संबंधित हैं । अर्थात् जैसे नसैनी की पैर 1 इव । (ब्या० प्र०) 2 अन्यथा । (ब्या० प्र०) 3 प्रमाणं केवलं भावमभावं वा गृह्णाति चेत्तदा भावाभावात्मकवस्तुग्रहणेऽनियमः प्रसजति । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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