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________________ अत्यन्ताभाव की सिद्धि ] प्रथम परिच्छेद [ २२५ निःश्रेणीपदबन्धाभ्यामिव भावाभावस्वभावाभ्यां प्रतिबन्धात्', स्वरूपादिभिरिव पररूपादिभिरपीष्टस्य संविदद्वयस्य भावे भेदरूपत्वप्रसङ्गात् पररूपादिभिरिव स्वरूपादिभिरपि अनुमान प्रमेयद्वित्व का ज्ञान कराता है तब तो उसका भी विषय सामान्य कहाँ रहा ? अत: 'प्रमेय दो हैं' इस बात को जानने के लिये आपको एक तीसरा ही प्रमाण खोजना पड़ेगा, इसलिये प्रमेय दो होने से ही प्रमाण दो हैं, यह व्यवस्था करना अशक्य है। हम जैनों ने तो प्रत्यक्ष और परोक्ष के भेद से प्रमाण के दो भेद किये हैं। उसमें भेद प्रभेद अनेकों माने हैं, फिर भी हमारे यहाँ प्रत्येक प्रमाण सामान्य-विशेषरूप उभयात्मक वस्तु को ही ग्रहण करते हैं। हाँ! अंतर यही है कि सभी प्रमाणों के ग्रहण की प्रक्रिया पथक-पथक है। प्रत्यक्ष प्रमाण वस्त को स्पष्ट जानता है अस्पष्ट रूप से जानता है। उन स्पष्ट-अस्पष्ट में भी तरतमता से अनेकों भेद हो जाते हैं । अतः प्रमेय रूप पदार्थ तो अनंत हैं और सामान्य विशेषात्मक ही हैं, एवं सभी पदार्थ भावाभावात्मक भी हैं। भाव छोड़कर अभाव और अभाव को छोड़कर भाव नहीं रह सकता है, क्योंकि पृथक्-पृथक् सामान्य विशेष उपलब्ध नहीं होते हैं और पृथक-पृथक् भाव एवं अभाव भी उपलब्ध नहीं होते हैं। उन प्रमेयों को जानने वाले प्रमाण ज्ञान तो प्रत्यक्ष परोक्षरूप से दो भी हैं। मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवल की अपेक्षा से पांच भी हैं और एक-एक ज्ञान के असंख्यातलोकप्रमाण भेद होने से असंख्यात भी हो सकते हैं हमारे जैनसिद्धांत के अनुसार बाधा नहीं आती है । तात्पर्य यह निकला कि अभाव को ग्रहण रने के लिये किसी पथक प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। ये प्रत्यक्ष, परोक्ष प्रमाण ही उस अभाव को भी ग्रहण कर लेते हैं। मीमांसक ने छह प्रमाण माने हैं प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, उपमान, अर्थापत्ति और अभाव । उसका कहना है कि पांच प्रमाण तो सत्तात्मक वस्तु को ग्रहण करते हैं और एक अंतिम अभावप्रमाण ही अभाव रूप वस्तु को विषय करता है । एवं वे अभावप्रमाण का लक्षण इस प्रकार से करते हैं कि "गृहीत्वा वस्तु सद्भावं" अर्थात् पहले कभी एक कमरे में घट को देखा था, पुनः किसी दिन वहाँ आकर देखा कमरा खाली है, उस कमरे को देखकर घट की याद आई और मन में 'घट' नहीं है, ऐसा ज्ञान प्रकट हुआ, उसमें इंद्रियज्ञान की अपेक्षा नहीं है। यह मानसिक नास्तिज्ञान हो अभावप्रमाण और घट के अभाव को सूचित करता है । ___इस पर जैनाचार्य कहते हैं कि आपने जो घट रहित कमरे को या भूतल को देखा तो चक्षु इंद्रिय से ही तो देखा है अतः घट के अभाव का ज्ञान प्रत्यक्ष से सिद्ध हुआ न कि कल्पित अभाव प्रमाण से । अत: हम जैनों का तो यही सिद्धांत है कि अभावात्मक वस्तु को भी प्रत्यक्ष, अनुमान, प्रत्यभिज्ञान आदि प्रमाण ही जानते हैं न कि अभाव प्रमाण । वास्तव में अभाव नाम की वस्तु कोई तुच्छाभाव तो है नहीं, वह तो एक भावांतररूप ही है। श्री समंतभद्रस्वामी ने स्वयंभूस्तोत्र में भी कहा है कि "दीपस्तमः पुद्गलभावतोऽस्ति" एवं "खे नास्ति पुष्पं तरुषु प्रसिद्ध" अर्थात् दीपक बुझा 1 सर्वस्यार्थस्य । स्वरूपेणेव पररूपेणापि । (ब्या० प्र०) 2 द्वैतादिभिः । (ब्या० प्र०) 3 सद्भावे । (ब्या० प्र०) 4 स्वरूपपररूपप्रकारेण । (ब्या० प्र०) 5 अन्यथा । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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